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सप्तमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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टीका-इस सूत्र में जल-काय जीवों की रक्षा को ध्यान में रखते हुए सूत्रकार शुद्धि के लिए जल के उपयोग के विषय में कहते हैं । प्रतिमा-प्रतिपन्न अनगार को श्रृङ्गार अथवा शरीर की शान्ति के लिए जीव-रहित शीत अथवा उष्ण जल से हाथ, पैर, दांत, आंखें अथवा मुख का एक बार अथवा बार-२ धोना योग्य नहीं । किन्तु, यदि शरीर पर कोई अशुद्ध वस्तु लग गई हो तो उसको वह शुद्ध कर सकता है अर्थात् मलोत्सर्गादि के पश्चात् जल से शौच कर सकता है । इसी प्रकार आहारादि के अनन्तर मुख तथा हाथों को जल से धो सकता है । इन क्रियाओं के लिए यह निषेध नहीं है । इनके अतिरिक्त जल द्वारा उच्छोलना (निरर्थक शरीर को धोना) कदापि न करे । कहने का तात्पर्य इतना ही है कि शुद्धि के लिए जल का उपयोग केवल मलोत्सर्ग और भोजन के अनन्तर ही करना चाहिए, और समय नहीं ।
सूत्र में 'शीतोदक-विकट' और 'उष्णोदक-विकट' दो शब्द आये हैं । उनका अर्थ इस प्रकार है-“शीतच्च तदुदकमिति शीतोदकं तच्च विकटं विगतजीवमिति शीतोदकविकटम् । एवमुष्णोदकविकटमपि ।” अर्थात् निर्जीव ठण्डे पानी को 'शीतोदक-विकट' और निर्जीव गरम पानी को 'उष्णोदक-विकट' कहते हैं । सूत्र में हस्त शब्द में नपुंसक लिङ्ग और बहुवचन प्राकृत होने के कारण दोषाधायक नहीं ।
"लेवालेवेण' से सूत्रकार का यह तात्पर्य नहीं कि जितने भी लेप हों उन सब को पानी के लेप से शुद्ध करना चाहिए बल्कि विशेष अशुद्ध वस्तुओं को दूर करने के लिए ही इसका विधान है । जैसे रास्ते में चलते समय यदि पक्षी कोई मलादिक अशुद्ध पदार्थ गिरा दें तो उनकी भी जल से शुद्धि करे, क्योंकि यदि शरीर मलादि से लिप्त होगा तो स्वाध्यायादि क्रियाएं शान्तिपूर्वक न हो सकेंगी । अतः ऐसी वस्तुओं को तो दूर करना ही चाहिए । किन्तु प्रत्येक सामान्य लेप को दूर करने के लिए जल का उपयोग सर्वथा अनुचित है । सम्पूर्ण कथन का सारांश यह निकला कि उपर्युक्त किसी मल विशेष को दूर करने के लिए ही जल-स्पर्श आवश्यक है, सर्वत्र नहीं ।
अब सूत्रकार गमन क्रिया के विषय में कहते हैं :
मासियं णं भिक्खु-पडिम पडिवन्नस्स नो कप्पति आसस्स वा हत्थिस्स वा गोणस्स वा महिसस्स वा कोलसुणगस्स वा सुणस्स वा वग्घस्स वा दुट्ठस्स वा आवदमाणस्स पयमवि
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