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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
तत्थेव -वहीं पर उवायणावित्तए - अतिक्रम (व्यतीत करना कप्पति - योग्य है । किन्तु से उसको पदमवि - एक पैर भी गमित्तए -गमन करना नो कप्पति-योग्य नहीं । हाँ, से-उसको कल्लं-कल्य (दूसरे दिन का प्रातः काल ) पाउप्पभाए- प्रातः काल के प्रकट होने पर रयणीए - रजनी (रात) के व्यतीत होने पर जाव - यावत् जलते - पूर्ण प्रकाश युक्त सूर्य के उदय होने पर पाईणाभिमुहस्स वा - पूर्व दिशा की ओर मुख कर अथवा दाहिणाभिमुहस्स वा - दक्षिण दिशा की ओर मुख कर अथवा पडीणाभिमुहस्स वा - पश्चिम दिशा की ओर मुख कर अथवा उत्तराभिमुहस्स वा उत्तर की ओर मुख कर अहारियं - ईर्या-समिति के अनुसार रित्तए-जाना कप्पति - योग्य है ।
सप्तमी दशा
मूलार्थ - मासिकी भिक्षु - प्रतिमा- प्रतिपन्न साधु को जहां पर सूर्यास्त हो जाय वहीं रहना योग्य है; चाहे वहां जल हो, स्थल हो, दुर्गम स्थान हो, निम्न स्थान हो, पर्वत हो, विषम स्थान हो, गर्त हो या गुफा हो, उसको सारी रात्रि वहीं पर व्यतीत करनी चाहिए। वहां से एक पैर भी बढ़ना उचित नहीं । रात्रि समाप्त होने पर प्रातःकाल सूर्योदय के अनन्तर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम या उत्तर किसी भी दिशा की ओर मुख कर गमन करना उचित है । वह भी ईर्या समिति के अनुसार ही करना चाहिए |
टीका- पहले किसी सूत्र में उपाश्रयों के विषय में प्रतिपादन किया जा चुका है । इस सूत्र में प्रतिपादन किया जाता है कि यदि किसी प्रतिमा - प्रतिपन्न साधु को उपाश्रय प्राप्त करने से पहले मार्ग में ही सूर्यास्त हो जाय तो उसको जिस स्थान पर सूर्यास्त हो जाय वहीं पर ठहर जाना चाहिए; चाहे वहां जल हो, स्थल हो, जङ्गल हो, पर्वत हो, निम्न या विषम स्थान हो अथवा गुफा या गढ़ा हीं क्यों न हो, उसको वहां से कदापि एक कदम भी आगे नहीं जाना चाहिए ।
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प्रातःकाल जब सूर्य अपनी किरणों से प्रत्येक स्थान को प्रकाशित कर दे तब वह पूर्व, पश्चिम, उत्तर या दक्षिण किसी दिशा को भी स्वेच्छानुसार जा सकता है। प्रातःकाल ध्यानावस्था में जिस दिशा को विहार करना चाहिए ।
। अथवा
यहां पर यह शंका उपस्थित हो सकती है कि यदि किसी को जल में ही सूर्यास्त
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