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सप्तमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
उस स्थान में स्वयं आग लग जाय या कोई उसमें आग लगा दे तो उस साधु को अग्नि के भय से उस उपाश्रय से बाहर निकलना या उसमें प्रवेश करना योग्य नहीं । किन्तु • यदि कोई व्यक्ति उसकी भुजा पकड़ कर बाहर निकालना चाहे तो उस (निकालने वाले) का विरोध कर उसको वहां ठहरना भी योग्य नहीं, प्रत्युत ईर्ष्या-समिति के अनुसार यथा - विधि गमन करना अर्थात् वहां से निकलना ही योग्य है; क्योंकि शरीर की ममता और मोह के परित्याग करने वह स्वयं तो उसकी रक्षा नहीं कर सकता, हां यदि अन्य जन उसे निकालें तो वहां हठ - पूर्वक ठहरना भी योग्य नहीं ।
अब सूत्रकार फिर प्रतिमा - प्रतिपन्न मुनि के विषय में ही कहते हैं:
मासियं णं भिक्खु-पडिमं पडिवन्नस्स पायंसि खाणु वा कंटए वा हीरए वा सक्कराए वा अणुपवेसेज्जा नो से कप्पइ नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा, कप्पति से अहारियं रियत्तए ।
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मासिक नु भिक्षु-प्रतिमां प्रतिपन्नस्य पादे स्थाणुर्वाकण्टकं वा हीरकं वा शर्करा वानुप्रविशेत् नो से कल्पते निर्हर्तुं वा विशोधयितुं वा, कल्पते स यथेर्यमर्तुम् ।
पदार्थान्वयः - मासियं-मासिकी भिक्खु-पडिमं - भिक्षु - प्रतिमा पडिवन्नस्स - प्रतिपन्न अनगार के पायंसि - पैर में यदि खाणु-लकड़ी का ठूंठा वा अथवा कंटए वा - कण्टक अथवा हीरए वा - हीरा के समान तेज कांच आदि अथवा सक्करए - कंकर अणुपवेसेज्जा - प्रविष्ट हो जाय तो से उस मुनि को नीहरितए वा - पैर से निकालना अथवा विसोहित्तए-विशोधन करना नो कप्पइ-योग्य नहीं किन्तु अहारियं - ईर्या-समिति के अनुसार रित्तए - गमन करना कप्पति - योग्य है ।
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मूलार्थ - मासिकी भिक्षु प्रतिमा- प्रतिपन्न साधु के पैर में यदि लकड़ी का ठूंठा, कांटा, हीरक अथवा कङ्कर प्रवेश कर जाय तो साधु को कांटा आदि निकालना या विशुद्ध करना योग्य नहीं, ईर्या-समिति के अनुसार गमन करना ही योग्य है ।
प्रत्युत उसको
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