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सप्तमी दशा.
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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और स्तोक (थोड़ी) मात्रा में लेना चाहिए और जब मनुष्य, पशु, श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और भिखारी लेकर चले जायं तब ही साधु को लेना योग्य है । जहां एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वहीं से लेना चाहिए । किन्तु वहां से उसको लेना चाहिए जहां दो के लिए न हो, तीन के लिए न हो, चार के लिए न हो, पांच के लिए न हो, गर्भवती के लिए न हो, बच्चे वाली के लिए न हो । जो स्त्री बच्चे को दूध पिलाती हो (और उसको अलग रखकर भिक्षा दे तो) उससे नहीं लेना चाहिए । जिसके दोनों पैर देहली के भीतर हों या दोनों पैर उससे बाहर हों उससे नहीं लेना चाहिए । जो एक पैर देहली के भीतर और एक देहली के बाहर रखकर अर्थात देहली को दोनों पैरों के बीच में कर भिक्षा दे उससे ही भिक्षा ग्रहण करना योग्य है । किन्तु जो इस प्रकार से न दे उससे नहीं लेनी चाहिए ।
टीका-इस सूत्र में मासिकी प्रतिमा-धारी मुनि के द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा से अभिग्रहों (प्रतिज्ञाओं) का वर्णन किया गया है । मासिकी प्रतिमा-धारी मुनि को एक दत्ति भोजन की और एक दत्ति पानी की ग्रहण करनी चाहिए ।
यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि 'दत्ति' किसे कहते हैं ? उत्तर में कहा जाता है कि 'दत्ति' शब्द दान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । यह 'दा' धातु से भाव में "क्तिन्' प्रत्यय का रूप है । जब दाता साधु के पात्र में अन्न या पानी देने लगे उस समय जब तक दीयमान पदार्थ की अखण्ड धारा बनी रहे तब तक उसका नाम 'दत्ति' है । धारा खण्डित होने पर 'दत्ति' की समाप्ति हो जाती है । इसी क्रम से दत्ति की संख्या होती है । वृत्तिकार इसके विषय में लिखते हैं-"तत्र दानं दत्तिर्भावे क्तिन् प्रत्ययः । एका चासौ दत्तिश्चेति एकदत्तिः, एकवारं गृहस्थेनाखण्डधारया साधु पतद् यदन्नपानदानं सा एकदत्तिः । तथा यदा दापके-नैका भिक्षाखण्डधारया दीयते तदा प्रथमा । यदा च धाराखण्डनं विधाय दीयते तदा द्वितीया, इत्यादि ।” यहां अनेक प्रकार के भेदों की उत्पत्ति होती है । जैसे१-एक-भिक्षा-एकदत्ति २-एक-भिक्षा-अनेकदत्ति ३-अनेक-भिक्षा-एक-दत्ति ४-अनेकभिक्षा-अनेकदत्ति (साधारण आहार) । इस प्रकार इसके अनेक भेद बन जाते
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