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सप्तमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
वसति-रहता है से - उसको संतरा - अन्तर रहित उतने दिनों का छेदे वा - दीक्षा-छेद अथवा परिहारे - परिहारिक-तप-प्रायश्चित्त लगता है । 'णं' शब्द शब्दालङ्कार और 'वा' शब्द अथवा तथा परस्परापेक्षा अर्थ में संगृहीत हैं ।
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मूलार्थ - मासिकी भिक्षु- प्रतिमा- प्रतिपन्न अनगार को जहां कोई जानता है वहां वह एक रात्रि रह सकता है और जहां उसको कोई नहीं जानता वहां वह एक या दो रात्रि रह सकता है, किन्तु एक या दो रात्रि से अधिक वहां उस का रहना योग्य नहीं । इस से अधिक जो जितने दिन रहेगा उसको उतने दिनों का छेद अथवा तप का प्रायश्चित्त लगेगा ।
टीका - इस सूत्र प्रतिमा - धारी मुनि की विहारचर्या के विषय में कहा गया है । मासिकी प्रतिमा - प्रतिपन्न अनगार यदि किसी ऐसे स्थान पर जाय जहां उसको कोई जानता है तो वहां वह एक रात्रि ठहर सकता है। जहां उसको कोई नहीं जानता वहां वह एक या दो रात्रि निवास कर सकता है । किन्तु यदि वह इससे अधिक रहता है तो उसको छेद या तप का प्रायश्चित लगता है । इस प्रकार साम्प्रदायिक धारणा चली आती है ।
किन्तु वृत्तिकार इस विषय में इस प्रकार लिखते हैं- "यस्तत्रैकरात्राद् द्विरात्राद् वा (वा शब्दो विकल्पार्थः) परतो वसति सोऽन्तराच्छेदेन वा परिहारेण वा ग्रामान्तरे गत्वा कियन्तं कालं स्थित्वा पुनरागत्य तिष्ठति न तु निरन्तरतया तत्र वसति । परिहारे वां त्ति-यत्र स्थितास्तस्थान - परिहारेण त्यागेन कल्पते । अत्र सूत्रे रात्रिग्रहणं दिवसोऽप्युपलक्षणं तेनाहोरात्रं परिवसति" । इस वृत्ति का भावार्थ इतना ही है कि यदि वह उस स्थान पर अधिक रहना चाहे तो बीच में कुछ समय अन्यत्र चला जाय और तदनन्तर फिर वहां आकर रह सकता है, किन्तु निरन्तर वहां स्थिति नहीं कर सकता ।
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अब सूत्रकार प्रतिमा - प्रतिपन्न अनगार की भाषा के विषय में कहते हैं :― मासि भिक्खु - पडिमं पडिवन्नस्स कप्पति चत्तारि भासाओ भासित्तए । तं जहा- जायणी, पुच्छणी, अणुण्णवणी, पुट्ठस्स
वागरणी ।
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