________________
२४०
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सप्तमी दशा
भिक्षु-पडिमा-भिक्षु-प्रतिमा अहो-राइं-दिया-एक रात्रि और दिन की भिक्खु-पडिमा-भिक्षु-प्रतिमा एग-राइया-एक रात्रि की भिक्षु-प्रतिमा ।
मूलार्थ-एक मास से लेकर सात मास तक सात प्रतिमाएं हैं | आठवीं, नौवीं और दशवीं प्रतिमाएँ सात-२ दिन और रात्रि की होती हैं । ग्यारहवीं एक अहोरात्र की होती है और बारहवीं केवल एक रात्रि की ।
टीका-इस सूत्र में द्वादश प्रतिमाओं का नामाख्यान किया गया है । जैसे-पहली प्रतिमा एक मास की, दूसरी दो मास की और तीसरी तीन मास की । इसी प्रकार सातवीं सात मास की होती है । आठवीं, नौवीं और दसवीं प्रतिमाएं सात दिन और सात रात की, ग्यारहवीं एक अहोरात्र की और बारहवीं एक रात्रि की होती है ।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यदि पहली प्रतिमा एक मास की, दूसरी दो मास की, इसी तरह सातवीं सात मास की मानी जाय तो इन सात प्रतिमाओं के लिए ही दो वर्ष चार महीने समय लगता है । इस से चतुर्मास में प्रतिमाएं छोड़नी पड़ेंगी; क्योंकि इसके बिना विहारादि नियमों का चतुर्मास में पालन नहीं हो सकता ? उत्तर में कहा जाता है कि प्रत्येक प्रतिमा एक २ मास की जाननी चाहिए । इस प्रकार गणना से सात प्रतिमाओं के लिए केवल सात मास और आठवीं, नौवीं और दशवी प्रतिमा के मिलाकर इक्कीस दिन, ग्यारहवीं का एक दिन और बारहवीं की एक रात्रि होती है । इस प्रकार सब प्रतिमाएं चतुर्मास से पूर्व ही समाप्त हो सकती हैं । प्रतिमाधारी भिक्षु गच्छ से पृथक होकर आठ मास के भीतर ही प्रतिमाओं की समाप्ति कर चतुर्मास के समय फिर निर्बाध गच्छ में मिल सकता है ।
। सूत्र में “दो-मासिया (द्वि-मासिकी) अर्थात दो मास की, इसी प्रकार तीन मास की इत्यादि से कोई प्रश्न कर सकता है कि दूसरी प्रतिमा दो मास की और तीसरी तीन मास की ही होनी चाहिए; क्योंकि सूत्रोक्त वाक्यों से यही अर्थ निकलता है ? सूत्रोक्त अर्थ ठीक है, किन्तु ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक प्रतिमा के साथ पूर्व-प्रतिमाओं का समय भी संग्रहीत किया गया है अर्थात् दूसरी प्रतिमा में एक मास पहली प्रतिमा को भी गिनना चाहिए । इसी प्रकार तीसरी प्रतिमा में दो मास पहली दो प्रतिमाओं के और एक उसका अपना इत्यादि सब के विषय में जानना चाहिए । इस प्रकार सूत्र के अर्थ में कोई-भेद नहीं पड़ता । वास्तव में प्रत्येक प्रतिमा एक-२ ही मास की है । यदि इस प्रकार न माना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org