________________
है षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
१६७
पदार्थान्वयः-से-अथ जहा-नामए-यथा-नामक रुक्खे सिया-वृक्ष पव्व-यग्गे जाए-पर्वत की चोटी पर उत्पन्न हुआ मूल-छिन्ने-मूल (जड़) के छेदन किये जाने पर और अग्गे गरुए-अग्रभाग के भारी होने से जओ-जहां विसम-विषम स्थान है तओ-वहीं पवडति-गिर जाता है एवामेव-इसी प्रकार तहप्पगारे-उस प्रकार का पुरिस-जाए-पुरुष जात गम्भाओ-गर्भ से गर्भ-गर्भ जम्माओ-जन्म से जन्म-जन्म माराओ-मृत्यु से मारं-मृत्यु दुक्खाओ-दुःख से दुक्ख-दुःख दाहिण-गामि-नेरइए-दक्षिण-गामी नारकी कण्ह-पक्खिए-कृष्ण पाक्षिक आगमेसाणं-भविष्य में दुल्लभ-बोहिए-दुर्लभ-बोधी भवति–होता है य-च और अवि-अपि शब्द परस्पर समुच्चय अर्थ में हैं से तं-यही अकिरिया-वाई यावि भवति–अक्रिया-वादी होता है |
मूलार्थ-जैसे पर्वत की चोटी पर उत्पन्न हुआ वृक्ष मूल के काटे जाने पर अग्र भाग के भारी होने से जहां निम्न, विषम और दुर्गम स्थान होता है वहीं गिरता है, ठीक इसी प्रकार नास्तिक पुरुष भी गर्भ से गर्भ, मृत्यु से मृत्यु, जन्म से जन्म और दुःख से दुःख में (गिरता है)। दक्षिण-गामी नारकी, कृष्ण-पाक्षिक और आगामी काल में दुर्लभ-बोधि होता है । इसी को अक्रियावादी भी कहते हैं (यही अक्रिया-वाद का फल
टीका-इस सूत्र में अक्रिया-वाद का फल तथा उसका उपसंहार किया गया है । जैसे-पर्वत की चोटी पर उत्पन्न हुआ एक वृक्ष-जिसका अग्र भाग स्थूल और मूल तनु हो-मूल के कटने या टूट जाने पर निम्न स्थान की ओर ही गिरता है, ठीक इसी प्रकार क्रूर कर्म करने वाला नास्तिक अपने दुष्कर्मों के भार से नरक की ओर ही जाता है । इसके अनन्तर रङ्ग-भूमि के नट के समान अनेक रूप परिवर्तन करता है | उसको अनन्त काल तक चारों गतियों और नाना योनियों में परिभ्रमण करना पड़ता है । वह संसार-चक्र से छुटकारा नहीं पाता, इसीलिए सूत्रकार ने उसको 'कृष्ण पाक्षिक' कहा
कृष्ण पाक्षिक यथार्थ में उसी को कहते हैं जो अर्द्ध-पुद्गल-परावर्त से अधिक संसार-चक्र में परिभ्रमण करे और जिसका संसार-चक्र अर्द्ध-पुद्गल-परावर्त से न्यून . हो उसको शुक्ल-पाक्षिक कहते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org