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षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
पास मेघकुमारादि दीक्षा ग्रहण करने के लिए उपस्थित हुए तब उनसे श्री भगवान् ने प्रतिपादन किया "अहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं करेह" हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हारे आत्मा को सुख हो, दीक्षादि धर्म - कृत्यों में प्रतिबन्ध (विलम्ब ) न करो । किन्तु ऐसा नहीं कहा कि पहले तुम श्रमणोपासक की एकादश प्रतिमाओं को धारण करो । इत्यादि कथनों से भली भांति सिद्ध होता है कि ये प्रतिमाएं गृहस्थ-धर्म की पराकाष्ठा स्वरूप हैं । जो श्रावक दीक्षा ग्रहण करने में अपनी सामर्थ्य न समझें उनको प्रतिमाओं के द्वारा ही अपना जीवन सफल बनाना चाहिए ।
यह शङ्का उपस्थित होती है कि कोई भी व्यक्ति आज कल उपर्युक्त ग्यारह प्रतिमाओं का नियम पूर्वक पालन नहीं कर सकता । क्योंकि पहली प्रतिमा में एकान्तर तप है, दूसरी में दो, इसी क्रम एकादश मास पर्यन्त एकादश उपवासों का तप है । यदि यह असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य है ? उत्तर में कहा जाता है कि व्रतों का विधान सूत्रोक्त नहीं है, अतः अप्रामाणिक है । जैसे सूत्रों में अन्य नियमों का प्रतिपादन विस्तार से किया है, यदि व्रतों का भी नियम होता तो अवश्य उनका उसी प्रकार विधान होता । अतः सिद्ध हुआ कि सूत्रोक्त न होने से तप का विधान प्रामाणिक नहीं हैं । हाँ, यदि प्रतिमा - धारी उपासक प्रतिमा के नियमों के अतिरिक्त तप करना चाहे तो वह उसकी इच्छा पर निर्भर है । प्रतिमा को धारण कर उपासक को उसके नियमों के पालन करने में अवश्य प्रयत्न-शील होना चाहिए ।
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इन एकादश प्रतिमाओं के नाम 'समवायाङ्गसूत्र' के एकादशवें समवाय में इस प्रकार दिये गये हैं
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"एक्कारस उवासग-पडिमाओ पण्णत्ताओ । तं जहा - दंसण - सावए; कय-वय-कम्मे ; सामाइअ - कडे; पोसहोववास - निरए; दिया बंभयारी; रत्ति - परिमाण - कडे; दिया वि राओ वि बंभयारी; असिणाई; वियड - भोई; मोलि - कडे; सचित्त - परिण्णाए आरंभ - परिणाए; पेस - परिण्णाए; उद्दिट्ठ - भत्त - परिण्णाए; समण-भूए आवि भवइ समणाउसो ।"
दर्शन-श्रावकः; कृत-व्रत - कर्मा; कृत- सामायिकः; पौषधोपवास-निरतः; दिवा ब्रह्मचारी, रात्रौ परिमाण - कृतः; दिवापि रात्रावपि ब्रह्मचारी, अस्नायी, दिवाभोजी, अबद्धपरिधान-कच्छकः; सचित्ताहार - परिज्ञातक; आरम्भ - परिज्ञातकः; प्रेष्य-परिज्ञातकः; उद्दिष्टभक्त-परिज्ञातकः; श्रमण-भूत - साधुकल्प इत्यर्थः ।" देश व्रत वाले व्यक्ति को उतनी ही प्रतिमा धारण करनी चाहिएं जितनी वह धारण कर सके ।
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