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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा देने में निर्जरा है या नहीं ? उत्तर में कहा जाता है कि दान का फल क्षेत्रा (पात्रा) नुसार होता है । जिस प्रकार के क्षेत्र में धान्य बीजा जाता है उसी प्रकार का फल होता है । इसी प्रकार जैसे पात्र - सुपात्र या कुपात्र को दान दिया जायगा उसी प्रकार फल की प्राप्ति होगी । कहा भी है "समणोवासगस्स णं भंते । तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुयएसणिज्जेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जति ? गोयमा ! एमं तसा निज्जरा कज्जइ । नत्थि य से पावे कज्जइ ।"
षष्ठी दशा
इस सूत्र में तथा-रूप 'श्रमण' या 'माहन' शब्द आए हैं । उनकी व्याख्या करते हुए अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं "माहणस्स त्ति"" - मा हन इत्येवमाद्विशति स्वयं स्थूल - प्राणातिपात - निवृतत्वाद् यः स माहनो वा ब्राह्मणो वा । ब्रह्मचर्यस्य देशतः सद्भावाद् ब्राह्माणोऽपि देश - विरत इत्यादि । अर्थात् तथा-रूप श्रवण या माहन को प्रासुक (अचित्त) आहार देने से एकान्त निर्जरा होती है । शेष स्वयं जान लेना चाहिए ।
सब प्रतिमाओं का काल मिलाकर साढ़े पांच वर्ष होता है । इस काल को समाप्त कर उपासक या तो दीक्षित हो जाता हे या पुनः प्रतिमा धारण करता है । यदि कोई मृत्यु के समय को जान ले तो अनशन द्वारा स्वर्गारोहण करता है । कार्तिक नामक श्रेष्ठी के समान उपासक कितनी ही बार प्रतिमा धारण कर सकता है । यद्यपि नियमों की पूर्ति होने पर वह फिर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हो सकता है किन्तु यह प्रथा प्रायः जनता में प्रशस्थ नहीं मानी जाती । अतः प्रतिमा - पालन के अनन्तर शेष जीवन धर्म-ध्यान ही में
व्यतीत करना चाहिए ।
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"हे जम्बू
इस प्रकार श्री सुधर्म्मा स्वामी जी श्री जम्बू स्वामी जी से कहते हैं
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स्वामिन् ! जिस प्रकार मैंने श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखार - विन्द से इस दशा का अर्थ श्रवण किया है उसी प्रकार तुमको सुना दिया है । इसमें अपनी बुद्धि से मैंनें कुछ नहीं कहा । "
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