________________
षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
२३३
का और शिर पर चोटी देखकर यदि उससे कोई पूछ बैठे कि महानुभाव ! आप कौन है ? आपके मुख पर मुखपत्ति बंधी है और आपके रजोहरणादि सम्पूर्ण साधु के चिन्ह हैं किन्तु आपके सिर पर चोटी भी दिखाई दे रही है । उस समय (श्रमणोपासक) को प्रत्युत्तर में कहना चाहिए कि हे आयुष्मान ! मैं प्रतिमापन्न श्रमणोपासक हूँ इससे पूछने वाले के सन्देह कि निवृत्ति भी हो जायेगी और वह (श्रमणोपासक) स्तेन-भाव से बच जायेगा ।
दूसरों के समान रूप बना कर जनता की आँखों में धूल झोंकना भी चोरी में आ जाता है । उसको रूप-चोर कहते हैं । चोर अनेक प्रकार के होते हैं । जैसे-“तव-तेणे वय-तेणे रूव-तेणे य जे नरे । आयार-भाव-तेणे य कुव्वइ देव-किविसं ।।" अर्थात् तप का चोर, वाक्य का चोर, आचार का चोर और भाव का चोर आदि सब चोर ही कहलाते हैं । यहां, जैसा पहले कहा जा चुका है, बिना अपना परिचय दिये भिक्षाचरी करने वाला श्रमणोपासक रूप-चोर कहलायेगा, क्योंकि उसका वेष विल्कुल साधु के समान ही होता है । अतः चोरी के पाप से बचने के लिए उसको अवश्य अपना परिचय देना चाहिए ।
इस सूत्र में यह भी भली भाँति सिद्ध किया गया है कि केवल ज्ञान से मोक्ष नहीं हो सकता, नांही केवल क्रिया से हो सकता है- अतः “ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्षः अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनों के मिलाने से मोक्ष-प्राप्ति हो सकती है । इसीलिए पहली और दूसरी प्रतिमा में सम्यग्-दर्शन और सम्यग-ज्ञान का विषय वर्णन करके शेष नौ में चारित्र (क्रिया) का ही विषय वर्णन किया गया है । इतना ही नहीं, किन्तु ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम भी "समणे भूए (श्रमणो भूतः) लिखा है । यहां 'भूत' शब्द तुल्य अर्थ में आया हुआ है । इसलिए इस प्रतिमा को धारण करने वाले की सम्पूर्ण क्रियाएं प्रायः साधु के समान ही होती हैं अर्थात उसकी और साधु की भिक्षाचरी और प्रतिलेखन आदि क्रियाओं में कोई अन्तर नहीं होता । शेष समय वह स्वाध्याय और ध्यान में व्यतीत करता है । किन्तु ध्यान रहे कि आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान सदैव त्याज्य हैं ।
__ अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान का क्या आकार है ? उत्तर में कहा जाता है कि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए जो पुद्गल द्रव्य की इच्छा होती है उसका प्राप्ति न होने पर अन्य व्यक्तियों को हानि पहुंचाने के उपायों के अन्वेषण (ढूंढ) करने को आर्त या रौद्र ध्यान कहते हैं । प्रिय वस्तु का न मिलना, अप्रिय वस्तु का मिलना, सदा रोग-निवृत्ति की चिन्ता से ग्रस्त रहना और इच्छित काम-भोगों
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org