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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
षष्ठी दशा
मूलार्थ-उस उपासक को गृहपति के घर में प्रविष्ट होने पर इस प्रकार से बोलना योग्य है "प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो | इस प्रकार के विहार से विचरते हुए उसको यदि कोई पूछे "हे आयुष्मन! तुम कौन हो?" तब उसको कहना चाहिए "मैं प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक हूँ | यही मेरा स्वरूप है ।" इस प्रकार के विहार से विचरता हुआ वह जघन्य से एक, दो या तीन दिन और उत्कर्ष से एकादश मास पर्यन्त विचरता है । यही श्रमणोपासक की ग्यारहवीं प्रतिमा है । यही स्थविर भगवन्तों ने ग्यारह उपासक-प्रतिमाएं प्रतिपादन की हैं । इस प्रकार मैं कहता हूं । षष्ठी दशा समाप्ता ।
टीका-इस सूत्र में ग्यारहवीं-प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक का वर्णन करते हुए प्रस्तुत दशा का उपसंहार किया गया है | जब ग्यारहवीं प्रतिमा धारण करने । श्रमणोपासक किसी गृहपति के घर पर भिक्षा के लिए जाय तो उसको कहना चाहिए "प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक को भिक्षा दो ।" उस समय इस प्रकार विचरते हुए उसको देखकर उससे यदि कोई प्रश्न करे कि आप कौन हैं ? तो प्रत्युत्तर में उसको कहना चाहिए कि मैं प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक हूँ और यही मेरा स्वरूप है अर्थात् मैं इसी स्वरूप में रहता हूं।
यह शंका उपस्थित हो सकती है कि जब श्रमणोपासक को गृहपति के घर पर जाकर भिक्षा के लिए उपर्युक्त शब्द करना पड़ता है तो साधु को भी भिक्षाचरी के समय कुछ न कुछ अवश्य कहना चाहिए ? समाधान में कहा जाता है कि श्रमणों-पासक को इसलिए ऐसा करना पड़ता है कि कोई उसको साधु न समझ ले, जिससे उसको (श्रमणोपासक को) चोरी का दोष लगने का भय है; क्योंकि उसका वेष-भूषा सब साधु के समान ही होता है । इस भ्रान्ति के निवारण के लिए श्रमणो-पासक को उपर्युक्त शब्द करना चाहिए | साधु को उसकी आवश्यकता नहीं । इससे यह भी सिद्ध होता है कि भिक्षाचरी केवल अपने सम्बन्धियों के घर से ही नहीं ली जाती, अपितु स्वजाति-बन्धुओं से भी ली जाती है । क्योंकि यदि सम्बन्ध्यिों से ही भिक्षा-याचना करनी होती तो शब्द
करने की कोई आवश्यकता न थी । वे तो उसको पहचानते ही हैं । जो कोई शब्द __ करेगा उसको तो वे लोग अपरिचित ही समझेंगे । भिक्षा करते हुए उसका सारा वेष साधु
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