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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
आहार - विधि से जानना चाहिए । भावाशय यह है कि वह ४२ दोषों से रहित शुद्ध भोजन ही ग्रहण कर सकता है ।
षष्ठी दशा
इस सूत्र में "पुव्वागमणेणं" शब्द में सप्तमी विभक्ति के अर्थ में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है, इससे 'आगमनात्पूर्वकाले' यह अर्थ हुआ । अर्द्ध-मागधी - कोष में इसका पूर्वागमन संस्कृत - अनुवाद किया गया है । "पुव्वाउत्ते (पूर्वायुक्तः) " शब्द का जाने से पहले पका हुआ अर्थ होता है । "भिलिंगसूव" मूंग आदि दालों को कहते हैं । यह शब्द यहां सामान्य रूप से सब तरह की दालों को बोधक है । इसी प्रकार चावलों के विषय में भी जानना चाहिए। वे भी यहां सब तरह के अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों का बोध कराते हैं । सारे कथन का सारांश यह निकला कि प्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक को साधुओं के समान दोष-रहित ही आहार ग्रहण करना चाहिए। ये दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाएं जैन वानप्रस्थ रूप हैं । वास्तव में इन्हीं को जैन - वानप्रस्थ कहते हैं ।
अब सूत्रकार वर्णन करते हैं कि जब श्रमणोपासक भिक्षा के लिए जाये तो किस प्रकार भिक्षा - याचना करनी चाहिए:
तस्स णं गाहावइ - कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुप्पविट्ठस्स कप्पति एवं वदित्तए "समणोवासगस्स पडिमा पडिवन्नस्स भिक्खं दलयह" । तं चेव एयारूवेण विहारेण विहरमाणे णं केइ पासित्ता वदिज्जा "केइ आउसो तुमं वत्तव्वं सिया", "समणोवासए पडिमा पडिवण्णए अहमंसीति" वत्तव्वं सिया । से णं एयारूवेण विहारेण विहरमाणे जहन्त्रेण एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्को सेण एक्कारस मासे विहरेज्जा । एकादसमा उवा - सग-पडिमा ||११||
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एयाओ खलु ताओ थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कारस उवासग-पडिमाओ पण्णत्ताओ त्ति बेमि ।
छठा दसा समत्ता ।
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