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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
षष्ठी दशा
के समान तीक्ष्ण है। वहां ज्योतिश्चक्र के न होने से निरन्तर अन्धकार रहता है । परमाधर्मी देव नारकियों को दुःख देने के लिए अनेक अनिष्ट पदार्थों को वैक्रिय (विकुर्वणा) करते हैं, जैसे–मेद (चरवी), वसा, मांस, रुधिर और पूत आदि की विकुर्वणा कर उनसे भूमि-तल का लेप किया होता है । कुत्सित पदार्थों की उत्कट गन्ध से सब नरक व्याप्त रहते हैं । कृष्णाग्नि की प्रभा के समान वहां के सब पदार्थ तप्त रहते हैं | नारकी जीव सदैव दुःसह वेदना का अनुभव करते हैं । उनकी निद्रा, प्रचला (बैठ बैठ निद्रा लेना), स्मृति, रति, बुद्धि, धृति आदि सब नष्ट हो जाती हैं । इससे वे सदैव उज्ज्वल, निर्मल, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, चण्ड, रौद्र, रूक्ष, दुर्गम, अति दुःखद और तीव्र वेदना का अनुभव करते हुए विचरते हैं । तात्पर्य यह है कि नरक में निमेष-मात्र के लिए भी सुख नहीं होता । सदैव उत्कट से उत्कट दुःख का अनुभव वहां करना पड़ता है । यह सब दुःख पूर्व-जन्म के उन बुरे कर्मों का फल होता है, जिनको आत्मा नास्तिक मत का अनुयायी होकर करता था ।
अब सूत्रकार उक्त विषय को ही दृष्टान्त द्वारा परिपुष्ट करते हैं:
से जहा-नामए रुक्खे सिया, पव्वयग्गे जाए मूल-छिन्ने अग्गे गरुए, जओ निन्नं, जओ दुग्गं, जओ विसमं, तओ पवडति, एवामेव तहप्पगारे पुरिस-जाए गब्भाओ गभं जम्माओ जम्म माराओ मारं दुक्खाओ दुक्खं दाहिण-गामि-नेरइए कण्ह-पक्खिए आगमेसाणं दुल्लभ-बोहिए यावि भवति । से तं अकिरिया-वाई यावि भवइ ।
अथ यथा नामको वृक्षः स्यात्, पर्वताने जातश्छिन्नमूलोऽग्रे गुरुको यतो निम्नं, यतो दुर्गं, यतो विषमं, ततः पतति, एवमेव तथा-प्रकारः पुरुष-जातो गर्भाद् गर्भ जन्मनो जन्म मारान् (मृत्योः) मार दुःखाद् दुःख दक्षिण-गामि-नैरयिक: कृष्ण-पाक्षिक आगमिष्यति काले दुर्लभ-बोधी चापि भवति । अथा सावाक्रिय-वादी चापि भवति ।
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