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है षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'प्रतिपूर्ण पौषध से सूत्रकार का क्या तात्पर्य है ? उत्तर में कहा जाता है कि पूर्वोक्त आहार, शरीर-सत्कार, अब्रह्य और व्यापार का परित्याग कर पौषध व्रत का भली भाँति पालन करने से सूत्रकार का तात्पर्य यह है-“पोषयति पुष्णाति वा कुशल-धर्मान् शुभसमाचारान्, प्राणातिपातविरमणादीन्, यद्यस्तात्तत्तस्मादाहारादित्यागानुष्ठानं भोजन-देहसत्काराब्रह्म-व्यापार-परिहारकरणमिह प्रक्रमे पोषध इत्येवं भाष्यते । पोषं धत्ते-पुष्णाति धर्मानिति निरुक्तात् । तत उपवसनम्-उपवासोऽवस्थानम्, तत्प्रतिपद्यानु-पश्चात् पालयिता-अनुष्ठाता भवति-संपद्यते, नत्वग्ङ्गीकृत्यैव परित्यजति ।” अर्थात् जिसके करने से धर्म-पुष्टि और कुशलानुष्ठान की वृद्धि होती है वही पौषध कहलाता है | उसके पूर्वोक्त-(१) आहार-पौषध-एक देश (अंश) या सब आहार का परित्याग करना, (२) शरीर-सत्कार- एक देश या सारे शरीर के सत्कार का परित्याग करना, (३) अब्रह्मचर्य-एक देश या सब प्रकार के अब्रह्मचर्य का परित्याग करना और (४) व्यापार-पौषध-एक देश या सारे व्यापार का परित्याग करना-चार भेद हैं । इनका अन्य ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है । जिज्ञासुओं को वहीं से जानना चाहिए 'समवायाङ्ग सूत्र' के एकादशवें स्थान की वृत्ति में पौषध के विषय में लिखा है “पोषं-पुष्टिं कुशलधर्माणां धत्ते-यदाहारपरित्यागादिकमनुष्ठानं तत्पौषधम्, ते नो पवसनम् -अवस्थान-महोरात्र यावदिति पौषधोपवास इति । अथवा पौषधं-पर्वदिनमष्टम्यादिस्तत्रोपवासः-अभक्तार्थः पौषधोपवास इति व्युत्पत्तिः । प्रवृत्तिस्वस्य शब्दस्याहार-शरीरसत्कारा-ब्रह्मचर्य-व्यापार-परिवर्तनेष्विति । तत्र-पौषधोपवासे निरतः-आसक्तः पौषधोपवास-निरतः इत्यादि । अर्थात् जिसके करने से कुशल धर्मानुष्ठान की पुष्टि होती हो उसी को पौषध व्रत कहते हैं । ___यह चौथी प्रतिमा पूर्वोक्त गुणों से युक्त और पूर्वोक्त प्रतिमाओं के समय सहित चार मास की होती है । इसमें पौषध और सामायिक व्रतों की विशेषतया सफलता होती है ।
अब सूत्रकार पांचवीं प्रतिमा का विषय कहते हैं:
अहावरा पंचमा उवासग-पडिमा । सव्व-धम्म-रुई यावि भवति । तस्स णं बहूई सीलवय....जाव सम्म अणु-पालित्ता भवति । से णं सामाइयं....तहेव, से णं चउद्दसी....तहेव, से णं । एग-राइयं उवासग-पडिमं सम्म अणुपालित्ता भवति । से णं
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