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षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम ।
२०६९
४. ब्रह्मचर्य-पौषध-कुशलानुष्ठान द्वारा समय व्यतीत करना, क्योंकि "ब्रह्यवेदा ब्रह्मतपो ब्रह्मज्ञानं च शाश्वतम्” इत्यादि कथन में ब्रह्मचर्य से कुशलानुष्ठान करना ही सिद्ध है किन्तु इस स्थान पर उस पौषध व्रत का अधिकार जानना चाहिये जो पौषध शाला में प्रविष्ट होकर अकेले ही आठ प्रहर तक उपवासक-व्रत से युक्त ११वें व्रत के अनुसार पौषध किया जाता है उसमें आठों प्रहर धर्म-ध्यान और समाधि में व्यतीत किये जाते हैं।
तीसरी प्रतिमा वाला उपासक पर्वादि दिनों में सम्यक्तया पौषध व्रत की आराधना नहीं करता, किन्तु दोनों समय सामायिक व्रत की आराधना अच्छी तरह से करता है । यहां पर यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि सामायिक प्रातः और सायंकाल के लिए ही विहित हैं, त्रिसन्ध्य के लिए नहीं अर्थात् मध्याहन काल में इसका करना आवश्यक नहीं । इस तीसरी प्रतिमा के लिए तीन मास नियत हैं ।
अब सूत्रकार चौथी प्रतिज्ञा का विषय वर्णन करते हैं:
अहावरा चउत्थी उवासग-पडिमा । सव्व-धम्म-रुई यावि भवति । तस्स णं बहूई सीलवय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाणपोसहोववासाई सम्मं पट्टवियाई भवंति । से णं सामाइयं दे सावगासियं सम्म अणुपालित्ता भवति । से णं चउद्दसि-अट्ठमि-उदिठ्ठ-पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालित्ता भवति । से णं एग-राइयं उवासग-पडिमं नो सम्म अणुपालित्ता भवति । चउत्थी उवासग-पडिमा ।।४।।
अथापरा चतुर्युपासक-प्रतिमा । सर्व-धर्म-रुचिश्चापि भवति । तस्य नु बहवः शीलव्रत-गुण-विरमण-प्रत्याख्यान-पौषधो-पवासाः सम्यक् प्रस्थापिताः भवन्ति । स च सामायिकं देशावकाशिकं सम्यगनुपालयिता भवति । स च चतुर्दश्यष्टम्युदिष्ट-पौर्णमासीषु प्रतिपूर्णं पौषधं सम्यगनुपालयिता भवति । स न्वे करात्रिकीमुपासक-प्रतिमां नो सम्यगनुपालयिता भवति । चतुर्युपासक-प्रतिमा ।।४।।
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