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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास व्रत अपने आत्मा में स्थापित किये होते हैं । वह सामायिक और देशावकाशिक व्रतों की आराधना उचित रीति से करता है । किन्तु चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पौर्णमासी आदि पर्व-दिनों में पौषधोपवास- व्रत की सम्यग् आराधना नहीं कर सकता । यही तीसरी उपासक-प्रतिमा है ।
षष्ठी दशा
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टीका - इस सूत्र में तीसरी प्रतिमा का विषय कथन किया गया है । इस प्रतिमा में पूर्वोक्त गुण अच्छी प्रकार पालन किये जाते हैं । इसमें सामायिक और देशावकाशिक व्रत भी उचित रीति अनुष्ठित होते हैं अर्थात् काल के काल (ठीक समय पर ) इनकी सम्यक्तया आराधना की जाती है ।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सामायिक और देशावकाशिक का अर्थ क्या है ? उत्तर में कहा जाता है कि जिसके करने से राग और द्वेष शान्त हों तथा आत्मा को ज्ञान, दर्शन और चारित्र का लाभ हो उसी का नाम सामायिक व्रत है । सावद्य योग का दो करण और तीन योग से त्याग किया जाता है । सामायिक का पवित्र समय स्वाध्याय 1 और धर्म-ध्यानादि में ही व्यतीत करना चाहिए । छठे दिगव्रत में दिशाओं के प्रमाण के लिए नियत समय में कुछ न्यूनता करना ही देशावकाशिक- व्रत कहलाता है ।
तीसरी प्रतिमा वाला उपासक यद्यपि सामाचिक और देशावकाशिक व्रतों की आराधना करता है किन्तु वह चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पौर्णमासी आदि पर्वों में सम्यक्तया पौषध-व्रत की आराधना नहीं कर सकता ।
यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि पौषध-व्रत किसे कहते हैं ? उत्तर में कहा जाता है कि जिन नियमों और धर्म - क्रियाओं के करने से धर्म - ध्यान में विशेष वृद्धि हो उनका नाम ही पौषध - व्रत है । पौषध-व्रत चार प्रकार का होता है । जैसे:
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१. आहार - पौषध - एक देश या सर्व आहार के त्यागने से धर्म-ध्यान और संयम में समय व्यतीत करना ।
२. शरीर - पौषध - शरीर के ऊपरी ममत्व का परित्याग करना और शरीर का सत्कार न करना ।
३. व्यापार - पौषध - व्यापार का परित्याग करना ।
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