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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
षष्ठी दशा
स्थापन करता है से-अथ सामाइयं-सामायिक और देसावगासियं-देशावकाशिक-व्रत सम्म-सम्यक् प्रकार अणुपालित्ता-अनुपालन करने वाला नो भवति-नहीं होता । दोच्चा-यह दूसरी उवासग-पडिमा-उपासक-प्रतिमा है। ___ मूलार्थ-द्वितीय उपासक-प्रतिमा में सब प्रकार के धर्म की रुचि होती है, बहुत से शील-व्रत, गुण-व्रत, विरमण-व्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास धारण किये जाते हैं । किन्तु सामायिक-व्रत और देशावकाशिक-व्रत की सम्यक्तया पालना नहीं होती । यही द्वितीयोपासक-प्रतिमा है।
टीका-इस सूत्र में उपासक की दूसरी प्रतिमा का वर्णन किया गया है । जिस व्यक्ति की आत्मा सम्यग्-दर्शन से युक्त हो जाती है वह फिर चारित्र-शुद्धि की ओर झुकता है और उससे कर्म-क्षय करने का प्रयत्न करता है । क्योंकि चरित्रा-वरणीय सर्वथा नाश नहीं हो सकते, अतः वह. सर्व-वृत्ति-रूप धर्म तो ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु अपनी आत्मा के कल्याण के जिए देश-व्रत के धारण करने का निश्चय भी कर कर लेता है । वह अपनी इच्छा से पांच शील-व्र तों-अहिंसा अर्थात् स्थूल-प्राणातिपात-विरमण, स्थूल-मृषा-वाद-विरमण, स्थूल-अदत्तादान, स्वदारा-सन्तोष और स्थूल-परिग्रह-विरमण अर्थात् इच्छा-प्रमाण व्रतों को धारण कर लेता है । इन व्रतों के साथ साथ वह दिग्, भोग, परिभोग और अनर्थदण्ड-विरमण इन तीन गुण-व्रतों को भी धारण करता है, क्योंकि ये तीनों उपर्युक्त शील-व्रतों के लिए गुणकारी हैं । फिर वह सामायिक देशाव-काशिक, पौषध तथा अतिथि–संविभाग-इन चार व्रतों को विधि पूर्वक पालन करने लगता है । इन शिक्षा-व्रतों को धारण करने से आत्मा में एक अलौकिक समाधि का सञ्चार होता है । उसके आत्मा में उस समय-"बहवः शीलवत-गुणव्रत-विरमण पौषधोपवासाः सम्यक् प्रस्थापिताः-स्वत्मनि निवेशिता भवन्ति श्रावक के १२ व्रत ही आत्मा में सम्यक्तया निवेशित होते हैं ।
इस प्रतिमा में आत्मा यद्यपि श्रावक के बारह व्रतों की सम्यक्तया आराधना के योग्य बन जाता है तब भी सामायिक और देशावकाशिक (दिशाओं का परिमाण) व्रतों की काय द्वारा यथाकाल सम्यग् आराधना नहीं कर सकता । इस प्रतिमा के लिए दो मास का समय अर्थात् एक मास पहली प्रतिमा का और एक मास इस प्रतिमा का निर्धारित किया गया है।
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