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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
पदार्थों के स्वरूप को नय और प्रमाण पूर्वक अवश्य जान लेना चाहिए । यदि उसमें भी हृदय के कपट के कारण शङ्काएँ उत्पन्न होने लगें तो भगवान् के वचनों की यथार्थता में विश्वास कर निःशङ्क भाव से चित्त वृति को स्थिर कर लेना चाहिए | श्रावक को उन सबका ज्ञान करना चाहिए । उसको श्रुत और चारित्र धर्म की ओर रुचि करनी चाहिए । किन्तु ध्यान रहे कि जिस प्रकार श्रुत-धर्म और अर्थ-धर्म दो पृथक् धर्म प्रतिपादन किये हैं इसी प्रकार चारित्र - धर्म भी देश - चारित्र - धर्म और सर्व - चारित्र - धर्म दो पृथक् धर्म प्रतिपादन किये हैं । उसको क्षान्ति आदि श्रमण-धर्म की ओर भी रुचि करनी चाहिए, क्योंकि सूत्र में लिखा है कि जितने भी धर्म हैं, जैसे-ग्राम- धर्म, नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म आदि दश प्रकार के धर्म हैं - उन सब के जानने की रुचि होनी चाहिए । जब वह सब धर्मों को भली भांति जान लेगा तो तब उसकी रुचि होनी चाहिए । जब वह सब धर्मों को भली भांति जान लेगा तो तब उसकी रूचि धार्मिक कार्यों में अच्छी तरह हो सकती है । इसीलिए सूत्रकार ने आहिय ( आस्तिक) - वादी कहा है- "जीवादिपदार्थः सार्थोऽस्तीति मतिरस्येत्यास्तिकः" अर्थात् जो जीवादि पदार्थों में अस्तित्व की मति रखता है उसी को आस्तिक कहते हैं । जो आस्तिक है वह 'आस्तिक - भाव' प्रत्येक को समझा सकता है I और उसकी व्याख्या कर सकता है, अतः उसको उपदेश देने का भी अधिकार है । उसका आत्मा धर्म - राग में रङ्ग जाता है और फिर वह देवादि की सहायता भी नहीं चाहता, क्योंकि वह उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता - इन पांच प्रकार के सम्यग्-वाद के लक्षणों से युक्त होता है । अतः आस्तिक्य-भाव के होने से ही पहली प्रतिमा दर्शन - प्रतिमा कहलाती है । जो व्यक्ति आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करता है वह मोक्षादि पदार्थों का अस्तित्व सहज ही में स्वीकार कर सकता है । पहले सूत्र में कहा गया है कि आस्तिक-वादी आस्तिक- प्रज्ञ होता है "आस्तिक्ये - सफलपदार्थास्तित्वे प्रज्ञा- विचारणा सदर्थपर्यालोचनरूपा यस्स स आस्तिक्य - प्रज्ञः " अर्थात् सकल पदार्थों के सदर्थ विचारने में जिसकी बुद्धि है उसको आस्तिक्य-प्रज्ञ कहते हैं ।
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षष्ठी दशा
पहली अर्थात् दर्शन-प्रतिमा में आत्मा आस्तिक भाव में स्थित हो जाता है किन्तु वह शील- ब्रह्मचर्य आदि दूसरे व्रतों- अनुव्रतादि पांच में प्रविष्ट नहीं होता । तात्पर्य यह है कि वह शील- व्रत, पांच अनुव्रत, सात शिक्षा या गुण-व्रत- जो शील- व्रतों की रक्षा करने वाले हैं - विरमण रूप सामायिक व्रत, प्रत्याख्यान रूप देशावकाशिक व्रत और पर्व दिनों में पौषधोपवास व्रत आदि व्रतों को ग्रहण नहीं करता । ऊपर कही हुई व्रतों की व्याख्या चूर्णीकार इस प्रकार करते हैं "शीलानि सामायिक - देशावकाशिक
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