________________
-
P
षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
२२५
पश्यन्, दृष्ट्वा त्रसान् प्राणानुद्धृत्य पादावृच्छेत्, संहृत्य पादावृच्छेत् तिरश्चीनं कृत्वा पादावृच्छेत्, सति (मार्गे) पराक्रमेत्, संयतमेव परिक्रामेत्, नर्जुकं गच्छेत्, केवलं तस्य ज्ञातकं प्रेम-बन्धनमव्युच्छिन्नं भवति । एवं स कल्पते ज्ञाति-विधि व्रजितम् ।
पदार्थान्वयः-अहावरा-इसके अनन्तर एकादसमा-ग्यारहवीं उवासग-पडिमाउपासक-प्रतिमा प्रतिपादन करते हैं सव्व-धम्म-रुई-सर्व-धर्म-विषयक रुचि यावि भवति होती है जाव-यावत् उद्दिट्ठ-उद्दिष्ट भत्तं-भक्त से-उसका परिण्णाए-परित्यक्त भवति-होता है । से णं-वह खुर-मुंडए-क्षुर-मुण्डित वा-अथवा लुत्त-सिरए वा-लुञ्चित केश वाला होता है, गहियायार-भंडग-नेवत्थे-आचार, भाण्डोप-करण और साधुओं का वेष ग्रहण करता है | जारिसे-जिस प्रकार समणाणं-श्रमण निग्गंथाणं-निर्ग्रन्थों का धम्मे-धर्म पण्णत्ते-प्रतिपादन किया है, तं जहा-जैसे-सम्मं अच्छी प्रकार से काएण-काया से फासेमाणे-स्पर्श करता हुआ पालेमाणे-पालन करता हुआ पुरओ-आगे जुग-मायाए-युग-मात्र-प्रमाण से पेहमाणे-देखता हुआ दठूण-देखकर तसे-त्रस पाणे-प्राणियों को (उनकी रक्षा के लिए) पाए-पैरों की उद्धटु-ऊपर उठा कर रीएज्जा-चले साहटु-संकुचित कर रीएज्जा-चले वा अथवा तिरिच्छं-तिर्यक् पायं-चरण कटु-करके रीएज्जा-चले सति-मार्ग के विद्यमान होने पर परक्कमेज्जा-चलने का पराक्रम करे संजयं-निरन्तर यत्नशील होकर एव-ही परिक्कमेज्जा-पराक्रम करे । उज्जुयं-सरल रीति से नो गच्छेज्जा-न चले । से-उसका केवलं-केवल नायए-ज्ञाति (अपने सम्बन्धि-वर्ग) का पेज्जबन्धणे-प्रेम-बंधन अवोच्छिन्ने-व्यवच्छेद रहित भवति-होता है । एवं-अतः से-उसको नाय-विधिं वइत्तए-ज्ञाति के विशेष लोगों में आहार के लिए जाना कप्पति-योग्य है । णं-वाक्यालङ्कार अर्थ में है । और य-समुच्चय तथा अवि-परस्परापेक्षा अर्थ में है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए ।
मूलार्थ-इसके अनन्तर ग्यारहवीं प्रतिमा प्रतिपादन करते हैं | ग्यारहवीं प्रतिमा-युक्त उपासक की सर्व-धर्म-विषयक रुचि होती है । वह उद्दिष्ट-भक्त का परित्याग कर देता है, शिर के बाल क्षुर से मुंडवा देता है अथवा केशों का लुञ्चन करता है | वह साधु का आचार और भण्डोपकरण ग्रहण कर साधु के वेष में श्रमण निग्रन्थों के लिए प्रतिपादित धर्म को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org