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षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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हो तो उसी मार्ग में प्रयत्नशील होकर चले । सामने त्रस प्राणियों को देखकर पहले तो युग-मात्रा-प्रमाण भूमि को देखकर चले । तब भी यदि त्रस प्राणी दिखाई दें तो अपने पैरों को ऊपर उठा ले या संकुचित कर ले और मन्द गति से गमन करे । “तिरिच्छं-तिर्यग् वा पादौ विधय पार्श्वतः पादन्यासं कृत्वेत्यर्थः अर्थात् पैरों को तिरछा कर किनारे-किनारे चले । इस कथन का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार उन जीवों को व्यथा न पहुंचे उसी प्रकार ईर्या-समिति से गमन-क्रिया में प्रवत्त हो, किन्तु जीवों को बिना देखे सरल गति से गमन न करे । क्योंकि उसको साधु के समान प्रत्येक क्रिया में यत्न-पूर्वक ही प्रवत्त होना चाहिए । यदि विना यत्न के ही गमन आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होगा तो उसको संयम और आत्मा दोनों की विराधनाओं के होने का भय है । सम्पूर्ण कथन का सारांश यह निकला कि उसको हर प्रकार से साधु-धर्म का पालन करना पड़ता है ।
सब प्रकार से साधु-धर्म का आचरण करते हुए भी उसको अपने ज्ञाति (जाति) वर्ग से प्रेम-बन्धन रहता ही है । वह उनसे सर्वथा विमुक्त नहीं होता । उनके साथ उसका प्रेम-बन्धन त्रुटित नहीं होता । अतः उसको यही उचित है कि वह भिक्षा-वृत्ति अपने विशेषों से ही करे । निष्कर्ष यह निकला कि साधु समाचारी का सम्यग रीति से पालन करता हुआ वह ज्ञाति-वर्ग से प्रेम के व्यवच्छेद न होने के कारण उन्हीं से भिक्षा-वृत्ति करता है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि उक्त गुण से सम्पन्न उपासक ही स्व-ज्ञाति वर्ग में भिक्षा-वृत्ति द्वारा जीवन निर्वाह कर सकता है, दूसरा नहीं | दूसरी बात इससे यह भी निकलती है कि जिस उपासक का ज्ञाति वर्ग से प्रेम-बन्धन है वह तो उन्हीं से भिक्षा-वृत्ति करेगा, किन्तु जिसने उनसे वह बन्धन छुड़ा लिया है वह अज्ञात कुल से भी गोचरी कर सकता है । इसीलिए सूत्र में भिक्षु के लिए पुनः पुनः लिखा है कि वह अज्ञात कुल की ही गोचरी कर सकता है ।
अग्रिम सूत्र में सूत्रकार वर्णन करते हैं कि जब प्रतिमा-धारी श्रमणोपासक स्व-ज्ञाति-कुल में भिक्षा के लिए जाय तो उसको किस प्रकार भिक्षा ग्रहण करनी चाहिए ।
तत्थ से पुव्वागमणेणं पुव्वाउत्ते चाउलोदणे पच्छाउत्ते भिलिंग-सूवे, कप्पति से चाउलोदणे पडिग्गहित्तए, नो से कप्पति भिलिंग-सूवे पडिग्गहित्तए । तत्थ णं से पुव्वागमणेणं पुवाउत्ते
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