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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
षष्ठी दशा
निरतिचार से पालन करता है । वह विशेषतया रात्रि और दिन में ब्रह्मचर्य धारण करता हे । “राओवरायं (राउवरत्तिं) वा बंभयारी-रात्रिर्निशा, अपगता रात्रिः अपरात्रो-दिवसः, रात्रिश्चापरात्रश्च राज्यपरात्रो तयोः ब्रह्मचर्य का पालन करता है । इनके अतिरिक्त वह सचित्त आहार का भी परित्याग कर देता है, अर्थात भोजन और जल-प्रासक ही ग्रहण करता है । किन्तु उसने आरम्भ (कृषि आदि पापपूर्ण व्यापार) के करने और कराने तथा उक्त विषय में अनुमति देने का परित्याग नहीं किया होता । अतः एव उसके लिए आरम्भ अपरिज्ञात कहा है।
इस प्रतिमा का काल कम से कम एक दो या तीन और अधिक से अधिक सात मास है । जघन्य से अधिक और उत्कृष्ट से मध्यम काल के विषय में जिज्ञासुओं को स्वयं विचार कर लेना चाहिए ।
अब सूत्रकार आठवीं प्रतिमा का विषय कहते हैं:
अहावरा अट्ठमा उवासग-पडिमा । सव्व-धम्म-रुई यावि भवति । जाव राओवरायं बंभयारी । सचित्ताहारे से परिणाए भवति । आरंभे से परिण्णाए भवति । पेसारंभे अपरिण्णाए भवति । से णं एयारूवेण विहारेण विहर-माणे जाव जहन्नेण एगाहं दुयाहं तियाहं वा जाव उक्कोसेण अट्ठ मासे विहरेज्जा । से तं अट्ठमा उवासग-पडिमा ।।७।।
अथापराष्टम्युपासक-प्रतिमा । सर्व-धर्म-रुचिश्चापि भवति । यावद् रात्र्यपरात्रं ब्रह्मचारी । सचित्ताहारस्तस्य परिज्ञातो भवति । आरम्भस्तस्य परिज्ञातो भवति । प्रेष्यारम्भोऽपरिज्ञातो भवति । स चैतद्रूपेण विहारेण विहरन् यावज्जघन्येनैकाहं द्वयहं त्र्यहं वा यावदुत्कर्षेणाष्ट मासान् विहरते । सेयमष्टम्युपासक-प्रतिमा ।।७।।
पदार्थान्वयः-अहावरा-इसके अनन्तर अट्ठमा-आठवीं उवासग-पडिमाउपासक-प्रतिमा प्रतिपादन की है । इस प्रतिमा के ग्रहण करने वाले की
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