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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
षष्ठी दशा
है, अर्थात् उसको जन्मान्तर में सम्यग्वाद की प्राप्ति सुगमतया हो सकती है, क्योंकि जितने भी क्रियावादी आत्माएं हैं, वे शुक्ल पाक्षिक होकर मोक्षगामी हो सकते हैं । यह क्रियावाद स्वीकार करने का ही फल है कि आत्मा शुक्ल पाक्षिक बनकर सुलभ-बोधी बन जाता है।
सिद्ध यह हुआ कि आत्मा सम्यग्वाद के द्वारा अपना कल्याण कर सकता है । यदि आत्मा आस्तिक-वाद स्वीकार कर भी ले और सम्यक-चरित्र ग्रहण न करे तब भी वह भव-भ्रमण से निवृत्ति नहीं कर सकता | अतः सम्यग-ज्ञान सम्यग-दर्शन और सम्यक् चारित्र द्वारा ही निर्वाण-पद की प्राप्ति कर सकता है, अन्यथा नहीं ।
इस सूत्र में "अत्थ्सि (अस्ति) क्रिया-पद “संति (सन्ति) क्रिया-पद के स्थान पर प्रयुक्त किया गया है और "आगमेस्साणं" इस पद में "लुट: सद्वा” इस सूत्र से भविष्यदर्थ में लृट् से शानच् प्रत्यय किया गया है।
अब सूत्रकार उपासक की पहली प्रतिमा का विषय वर्णन करते हैं:
सव्व-धम्म-रुई यावि भवति । तस्स णं बहूई सील-वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाई नो सम्म पट्टविय-पुव्वाइं भवंति । एवं दंसण-पढमा उवासग-पडिमा ।।१।। __सर्व-धर्म-रुचिश्चापि भवति । तस्य नु बहवः शीलव्रत-गुण-विरमणप्रत्याख्यान-पौषधोपवासाः नो सम्यक् प्रस्थापितपूर्वा भवन्ति । एवं दर्शन-प्रथमोपासक-प्रतिमा ।।१।।
पदार्थान्वयः-सव्व-धम्म-रुई यावि-सर्व-धर्म में रुचि भवति होती है तस्स-उसके बहूई-बहुत सीलवय-अनुव्रत गुण-गुणव्रत वेरमणा-निवृत्तिरूप सामायिक व्रत पच्चक्खाण प्रत्याख्यान देशावकाशिक व्रत पोसहोववासाइं-पौषधोपवास व्रत सम्म-सम्यक् प्रकार से नो पट्टविय-पुव्वाइं-पहिले आत्मा में स्थापित नहीं किये होते हैं । एवं-इस प्रकार पढमा-पहली उवासग-उपासक की दंसण-दर्शन पडिमा-प्रतिमा भवति होती है णं-वाक्यालङ्कार के लिए है ।
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