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षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम |
२०३
मूलार्थ-प्रथम दर्शन-प्रतिमा में सर्व-धर्म विषयक रुचि होती है। किन्तु उसके बहुत से शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास सम्यक्-तया आत्मा में स्थापन नहीं किये होते । इस प्रकार उपासक की पहली दर्शन-प्रतिमा होती है।
टीका-इस सूत्र में उपासक की दर्शन-प्रतिमा का विषय वर्णन किया गया है । सांसारिक कर्मों से निवृत्त होकर और अपने सम्बन्धियों के समक्ष पुत्रादि उत्तराधिकरी को अपना सर्वस्व समर्पण कर श्रावक स्वयं पौषध-शाला में प्रविष्ट हो जावे । वहां उसको अपना नवीन जीवन धार्मिक क्रियाओं में ही व्यतीत करना चाहिए । उपासक की दर्शन-प्रतिमा (प्रतिज्ञा) का आराधन करने के लिए उसको माध्यस्थ भाव का अवलम्बन कर प्रत्येक के सिद्धान्तों पर विचार करना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म-मार्ग में प्रविष्ट होने के लिए श्रावक को सबसे पहले 'साम्यवाद' ग्रहण करना परम आवश्यक है और ‘साम्य-वाद' ग्रहण करने से पूर्व उसको प्रत्येक वाद पर विचार करना उचित है । इस संसार-चक्र में यद्यपि अनेक वाद हैं तथापि उनमें नास्तिक-वाद और आस्तिक-वाद दो ही प्रधान हैं । अन्य वाद जैसे-चारवाकवाद, पांचभौतिक तच्छरीर और तज्जीववाद, ईश्वरवाद, प्रकृतिवाद, नियतिवाद, कर्मवाद, पुरुषार्थवाद, कालवाद, स्वभाववाद, योगवाद, कर्तृवाद, अकर्तृवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, आत्मवाद, सत्यवाद, असत्यवाद, क्षणिकवाद, अक्षणिकवाद, फलवाद, अफलवाद इत्यादि सब उक्त दो वादों के अन्तर्गत ही हो जाते हैं | श्रावक को इन वादों पर अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि से विचार करना चाहिए और फिर साम्यवाद के आश्रित होकर सम्यग-ज्ञान, सम्यग-दर्शन और सम्यक-चारित्र की आराधना करनी चाहिए । किन्तु उपासक की पहली प्रतिमा में सम्यग्-दर्शन और सम्यग्-ज्ञान पर ही विचार किया जाता है । जैसेः
'पढम उवासग-पडिम पडिवन्ने समणोवासए सव्व-धम्म-रुई यावि भवति।' (प्रथमामुपासक-प्रतिमा प्रतिपन्नः श्रमणोपासकः सर्व-धर्म-रुचिश्चापि भवति।)
इस सूत्र का वास्तव में तात्पर्य यह है कि जब श्रमणोपासक उपासक की पहली प्रतिमा को ग्रहण कर लेता है तब वह सब पदार्थों के धर्मों को भली प्रकार जान सकता है, क्योंकि जब तक किसी को जीवाजीव का ही अच्छी तरह बोध नहीं हुआ तब तक वह चरित्र से सम्बन्ध रखने वाली क्रियाओं का पालन किस प्रकार कर सकता है । अतः
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