________________
१६४
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सूर-णक्खत्त- जो इस प्पहा, मेद-वसा - मंस- रुहिर-पूय-पडलचिक्खल लित्ताणुले वणतला, असुइविसा, परम-दुभिगंधा, काउय-अगणि-वण्णाभा, कक्खड फासा, दुर-हियासा, असुभा नरगा, असुभा नरयेसु वेयणाओ, नो चेवणं नरए नेरइया निद्दायंति वा पयलायंति वा सुतिं वा रतिं वा धितिं वा मतिं वा उवलभ्भंति, ते णं तत्थ उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं चंडं दुक्खं दुग्गं तिक्खं तिव्वं दुरहियासं नरएसु नेरइया नरय-वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति ।
षष्ठी दशा
ते नु नरका अन्तावृत्ताः, बहिश्चतुरस्राः, अधः क्षुरप्र-संस्थान- संस्थिताः, नित्यान्धकारतमसो व्यपगत-ग्रह-चन्द - सूर्य-नक्षत्र - ज्योतिः- प्रभाः, मेदो- वसा-मांसरुधिर - पूत - पटल - कर्दम- ( चिक्खल) -लेपानुलिप्ततलाः, अशुचि - विश्राः, परम-दुरभिगन्धाः, कृष्णाग्नि-वर्णाभाः, कर्कश - स्पर्शाः, अशुभा नरकाः, अशुभा नरकेषु वेदना नो चैव नु नरकेषु नैरयिका निद्रायन्ते वा प्रचलायन्ते वा स्मृतिं वा रतं वा धृतिं वा मतिं वोपल-भन्ते ते नु तत्रोज्ज्वलं विपुलं प्रगाढं कर्कशं कटुकं चण्डं रुद्रं दुर्गं तीक्ष्णं तीव्रं दुरधिसह्यं नरकेषु नैरयिका नरक - वेदनं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ।
Jain Education International
पदार्थान्वयः -ते-वे नरगा - नरक - स्थान अंतो - भीतर से वट्टा - गोलाकार और बाहिं - बाहिर चउरंसा - चतुष्कोण हैं अहे-नीचे खुरप्प - क्षुर (उस्तरा ) आदि तीक्ष्ण शस्त्रों के संठाण - संस्थान से संठिया - संस्थित हैं, निच्चंधकार - सदा अन्धकार और तमसा - तम के कारण ववगय-दूर हो गई है गह- ग्रह चंद- चन्द्र सूर-सूर्य णक्खत्त-नक्षत्रों की जोइस- पहा - ज्योति की प्रभा (जिनसे ), ( परमा-धर्मियों ने दुःख देने के लिए वैक्रियमयी) मेद-मेद वसा - वसा मंस- मांस रुहिर - रुधिर और पूय - विकृत रुधिर (पीप) का पडल - समूह चिक्खल्ल - कीचड़ से लित्ताणुलेवणतला - भूमि का तल लिप्त किया होता है. असुइविसा - मल-मूत्रादि से लिप्त अथवा बीभत्स (परम) उत्कट दुब्भिगंधा- दुर्गन्ध से भरे
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org