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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
नास्तिक को केवल संसार-चक्र में ही भ्रमण नहीं करना पड़ता, अपितु अनेक प्रकार के दुःख भोगने के लिए दक्षिण- गामी नारकी भी बनना पड़ता है । उत्तर दिशा के नरकों की अपेक्षा दक्षिण दिशा के नरक अत्यन्त दुःख - प्रद हैं । वहां नारकी दुःख भोगने के साथ-साथ दुर्लभ - बोधि-भाव के कर्मों की उपार्जना भी करता है, अर्थात् किसी शुभ कर्म के उदय से यदि उसको मनुष्य योनि मिल भी जाये तो उसको धर्म-प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ होती है, अतः वह भविष्य में दुर्लभ - बोधी होता है, उसके पूर्व-जन्म के अशुभ कर्म उसको मोक्ष मार्ग की ओर जाने से रोकते हैं और फलतः वह उससे पराङग्मुख ही रहता है । इसी का नाम अक्रिया - वाद है ।
इस नास्तिक या अक्रिया -वाद के व्याख्यान से सूत्रकार का आशय इतना ही है कि उपासक को ध्यान रहे कि नास्तिक मत को मानने वाले की पूर्वोक्त दशा होती है, अतः अपनी कल्याण-कामना करने वाले व्यक्ति को इस नास्तिक - वाद का सर्वथा परित्याग करना चाहिए । क्योंकि इसमें अन्याय - शीलता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं और उसका परिणाम उभय-लोक में भयंकर है ।
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षष्ठी दशा
अब सूत्रकार आस्तिक-वाद का विषय कहते हैं:
से किं तं किरिया-वाई यावि भवति ? तं जहा - आहिया-वाई, आहिय- पन्ने, आहिय- दिट्ठी, सम्मा-वाई, निया-वाई, संति परलोग- वादी, अत्थि इह-लोगे, अत्थि परलोगे, अत्थि माया, अस्थि पिया, अत्थि अरिहंता, अत्थि चक्कवट्टी, अत्थि बलदेवा, अत्थि वासुदेवा, अत्थि सुक्कड दुक्कडाणं कम्माणं फल-वित्ति-विसेसे, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवंति, सफले कल्लाण-पावए, पच्चायंति जीवा, अत्थि नेरइया, जाव अत्थि देवा, अत्थि सिद्धी, से एवं वादी, एवं पन्ने, एवं दिट्टी- छंद-राग-मति - निविट्टे आवि भवति ।
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