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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
षष्ठी दशा
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अतः लोक अथवा परलोक की कोई भी दिव्य शक्ति संसार में नहीं है, अतः लोक अथवा परलोक की कोई सत्ता ही नहीं है ।
पुण्य, पाप, इह-लोक पर उनका विश्वास ही नहीं होता. जैसे-"नास्ति परलोके मतिर्यस्य इति नास्तिकः नास्तिक शब्द की व्युत्पत्ति से भी ज्ञात होता है । अर्थात् जिसकी मति पर-लोक में नहीं होती, उसको नास्तिक कहते हैं | उसकी सब इन्द्रियां नास्तिक-वाद की ओर ही झुक जाती है । वह मोक्ष तक को कुछ नहीं समझता । उसके लिए न माता है, न पिता है । वह अर्हन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव नरक, नारकी तथा सुकृत और दुष्कृत के फल को भी नहीं मानता, क्योंकि वह अपना मन्तव्य बना लेता है कि पञ्चभूतों के अतिरिक्त और कोई पदार्थ है ही नहीं । वह कर्ता और भोक्ता कुछ नहीं मानता, अतः पाप और पुण्य का फल-विशेष भी उसके लिए नहीं है, फलतः उसको उस फल की प्राप्ति भी नहीं हो सकती । उसके लिए न तप, संयम और ब्रह्मचर्य आदि शुभ कर्मों का कोई फल है, नाहीं हिंसादि दुष्कृत्यों का । वह मानता है कि मृत्यु के अनन्तर आत्मा परलोक में उत्पन्न नहीं होता और नाहीं नरक से लेकर मोक्ष पर्यन्त कोई स्थान विशेष हैं । उसके मत से कोई न्याय-शील राजा ही नहीं ।
इस नास्तिक-वाद में अपनी मति स्थिर कर वह ऊपर कहे हुए अपने सिद्धान्तों में मग्न रहता है । इसी को पूर्ण कदाग्रही कहते हैं । अब सूत्रकार कहते हैं कि उसकी यह बद्धि हितकारी नहीं है प्रत्यत पापमयी है। यहां इनके वर्णन करने का तात्पर्य केवल इतना है कि उपासक जब आस्तिक-वाद में प्रविष्ट हो तो उसको नास्तिक-वाद का भी भली भांति ज्ञान होना चाहिए । साथ ही नास्तिक-वाद के मानने से इहलोक और परलोक में क्या फल होता है इसका भी ज्ञान करना आवश्यक है । नास्तिक-वादी आभिग्राहिक मिथ्यात्व के कारण पूर्ण कदाग्रही होता है।
इस सत्र में कई जगह 'अत्थि' एकवचन के स्थान और बहवचन और "संति' बहुवचन के स्थन पर एकवचन दिया गया है । प्राकृत होने से यह दोषाधायक नहीं है, क्योंकि प्राकृत में प्रायः वचन-व्यत्यय हो ही जाता है ।
__ अब निम्नलिखित सूत्र में सूत्रकार वर्णन करते हैं कि आत्मा मिथ्या-दृष्टि होकर किस प्रकार पांच आस्रवों में प्रवृत्ति करता है:
से भवति महिच्छे, महारंभे, महा-परिग्गहे, अहम्मिए, अहम्माणुए, अहम्म-सेवी, अहम्मिटे, अहम्म-क्खाइ, अहम्म-रागी,
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