________________
१७२
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
षष्ठी दशा
रुधिर में लिप्त रहते हैं । उसकी प्रकृति स्वभावतः क्रोधशील हो जाती है । उसका प्रत्येक कार्य निर्दयता-पूर्ण होता है । वह क्षुद्र-बुद्धि हो जाता है । पाप कर्म करने में उसका साहस बढ़ता जाता है । लोक और परलोक वह कुछ नहीं मानता, अतः बिना विचारे ही जो कुछ चाहता है कर बैठता है । वह लोगों से उत्कोच (घूस, रिश्वत) लेता है । उसके लिए छल करना महान् गुण है, इसलिए वह प्रत्येक व्यक्ति से छल करता फिरता है । निर्गुणों की प्रशंसा और ख्याति करना वह अपना गुण समझता है । वह मायावी है, गूढ़ कपट रचता है, कूट माया जाल बिछाता है । औरों के गले काटता फिरता है और ऊपर कही हुई क्रियाओं के करने में सदा प्रोत्साहित रहता है । वह स्वभावतः दुष्ट हो जाता है और दुष्टों की संगति करता है । अहम्मन्यता उसमें इतनी आ जाती है कि वह दूसरों के सदुपदेश को भी नहीं मानता । क्रोध का त्याग करना उसके लिए असम्भव है । वह दुराचार आसेवन करता है, मांस भक्षणादि दुष्ट ही व्रतों को धारण करता है । वह हिंसक यज्ञों का अनुयायी बन हिंसा में दत्त-चित्त होता है । उसका स्वभाव इतना दुष्ट हो जाता है कि वह किसी प्रकार भी प्रसन्न नहीं किया जा सकता है। दूसरे के किये हुए उपकारों को वह मानता ही नहीं । दुराचार को देखने तथा सुनने से उसका चित्त उतना ही दुःखी । होता है । वह व्यभिचारी, निश्शील और ब्रह्मचर्य का उपहास करने वाला होता है । क्षमादि गुण उसको छूने तक नहीं पाते । किसी भी कुल मर्यादा के तोड़ने में वह नहीं हिचकता । उदाहरणार्थ यदि उसके कुल में मांस भक्षण, सुरापान तथा परदारा सेवन का निषेध है तो वह उस पूर्वजों की मर्यादा को तोड़कर उन कुकर्मों में ही अपनी प्रवृति करता है । वह अष्टमी आदि पर्व-दिनों में त्याग और पोषधोपवास नहीं करता । वह असाधु है ।
यह सब नास्तिकत्व का ही प्रभाव है कि स्वभावतः निर्मल और पवित्र आत्मा भी पाप-कर्म में तल्लीन हो जाता है । जो व्यक्ति लोक और परलोक ही नहीं मानता उसका पाप में तल्लीन होना अनिवार्य है।
सिद्धान्त यह निकला कि जीवन को पवित्र बनाने के लिए आस्तिक-वाद अवश्य स्वीकार करना चाहिए, इसी से आत्मा न्याय-शील और मोक्षाधिकारी हो सकता है | ___ अब सूत्रकार नास्तिक-वाद के स्वीकार करने से उत्पन्न होने वाली अन्य पाप–क्रियाओं को वर्णन करते हैं:
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org