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षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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टीका-इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है कि नास्तिक आत्माएं त्रस प्राणियों के साथ सदा धान्य आदि के समान निर्दयता का व्यवहार करते हैं | वे जैसे वनस्पति तथा धान्य आदि को परिपक्व होने से पूर्व ही निर्दयता-पूर्वक मसल डालते हैं, इसी प्रकार सब तरह के जल-चर, स्थल-चर और खे-चर जीवों के प्रति भी उनके चित्त में दया का भाव नहीं होता । वनस्पति और धान्य के समान ही वे सर्वथा निरपराधी जीवों का क्रूरता से छेदन-भेदन करते हैं और उससे जरा भी नहीं झिझकते, क्योंकि नित्य हिंसावृत्ति में लिप्त रहने के कारण उनके चित्त में दया लेश-मात्र भी अवशिष्ट नहीं रहती । रक्षा का भाव तो उनके चित्त से सर्वथा उड़ ही जाता है ।
प्रतिदिन हिंसा करना उनको इतना साधारण प्रतीत होता है जैसे धर्मानुयायियों को अपने इष्ट देव का भजन । वे जैसे धान्यादि को काटते हैं, कूटते हैं, पीसते हैं तथा पकाते हैं इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय त्रसों के साथ भी उनका व्यवहार होता है । उनका अनुकरण कर उनके कुटुम्बी जन भी प्रायः इसी रास्ते पर राजा चलता है उसी पर प्रजा के लोग चलने लगते हैं |
'कलम' शाली विशेष का नाम है | 'मसूर' वृत्ताकार एक धान्य विशेष होता है । 'निष्पाव' वल्ला का नाम है । 'कुलत्थ' चपलाकार होता है, सौराष्ट्रादि देश में इसको 'चपटिका' के नाम से पुकारा जाता है । 'अलिसिंदक' चपलका धान्य विशेष को कहते हैं ।
अब सूत्रकार पुनः इसी विषय में कहते हैं:
जावि य से बाहिरिया परिसा भवति, तं जहा-दासेति वा पेसेति वा भितएति वा भाइल्लेति वा कम्म-करेति वा भोगपुरिसेति वा तेसिंपि य णं अण्णय-रगंसि अहा-लहुयंसि अवराहसि सयमेव गरुयं दंडं वत्तेति, तं जहाः___यापि च तस्य बाह्या परिषद् भवति, तद्यथा-दास इति वा प्रेष्य इति वा भृतक इति वा भागिक इति वा कर्मकर इति वा भोग-पुरुष इति वा तेषामप्यन्यतरस्मिन् यथा-लघुकेऽपराधे स्वयमेव गुरुकं दण्डं वर्तयति, तद्यथाः
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