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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
. षष्ठी दशा
से पीड़ित करते हैं सोयंति-दूसरों को शोक उत्पन्न कराते हैं । एवं-इसी प्रकार झुरंति-झुराते हैं तिप्पंति-रुलाते हैं पिट्टेइ-पीड़ा पहुंचाते हैं परितप्पंति-परितापना दिखाते हैं ते-वे दुष्टात्मा दुक्खण-दूसरों को दुःख पहुंचाने से परितप्पण-परिताप उत्पन्न करने से वह-बंध-बन्धन से परिकिलेसाओ-परिक्लेश से अप्पडिविरया-अप्रतिविरत भवंति-होते
मूलार्थ-इस प्रकार का पुरुष सदा दण्ड के लिए तत्पर रहता है | छोटे से अपराध पर भी भारी दण्ड देता है । सदा दण्ड को ही आगे किये रहता है । वह इस लोक और पर-लोक में अहितकारी है । वह नास्तिक दूसरे जीवों को दुःखित करता है, उनको शोक उत्पन्न करता है, इसी प्रकार झुराता है, रुलाता है, पीड़ा पहुंचाता है और परितापना करता है | वह पुरुष दूसरों को दुःखित करने से, शोक पैदा करने से, झुरण से, रूलाने से, पीड़ा पहुँचाने से, परितापना से, वध और बन्धरूप परिक्लेशों से अप्रतिनिवृत्त होता है। ___टीका-इस सूत्र में भी सूत्रकार पूर्व-वर्णित हृदय-हीन नास्तिकों के व्यवहार का ही वर्णन करते हैं, जैसे-नास्तिक दण्डामृषी होते है अर्थात् बिना दण्ड के किसी को नहीं छोड़ते । इस विषय में वृत्तिकार लिखते हैं:-"तथाप्रकारः पुरुषो दण्डामृषी-दण्डेनामृषत, कृतापराधं सहनं न करोति-इति दण्डामृषी । कृतापराधं दण्डेन विना न मुञ्चतीत्यर्थः । किन्तु अर्धमागधी कोष में दंडपासि (पु०) दण्डपाश्विन्, इस प्रकार पाठान्तर कर “थोड़े से अपराध के लिए भारी दण्ड देने वाला यह अर्थ किया है । ये दोनों अर्थ युक्ति-संगत हैं । नास्तिक दण्ड को ही गुरु मान कर बात-बात में दण्ड देने के लिए प्रस्तुत रहता है । यद्यपि ऐसे पुरुष उस समय अपनी दुष्टता से प्रसन्न रहते हैं, किन्तु उनका इस प्रकार अन्याय-पूर्ण व्यवहार इस लोक और पर-लोक में दुःख रूप ही होता है । जब वह अपने परिजन के साथ ही अन्याय-पूर्ण व्यवहार करता हे तो अन्य जीवों के विषय में तो कहना क्या है । वे दूसरे जीवों को दुखाते हैं, उनको शोक उत्पन्न करते हैं, उनके शरीर का अपचय कराते हैं, उनको रुलाते हैं, पीड़ा पहुंचाते है, परितापना उत्पन्न करते हैं, वे उक्त क्रियाओं से कभी निवृत्त नहीं होते | उनका आत्मा सदैव अन्य जीवों को हानि पहुंचाने में ही लगा रहता है ।
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