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षष्ठी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
आदि कार्यों से भी निवृत्ति नहीं कर सकते । इनके अतिरिक्त अन्य जो निन्दनीय, अबोध-उत्पादक और दूसरे जीवों के प्राण को दुःख पहुंचाने वाले जितने भी कर्म किये जाते हैं, उनसे भी निवृत्ति नहीं कर सकते ।
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टीका - इस सूत्र में भी पूर्व सूत्रों के समान नास्तिक के अवगुणों का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि नास्तिक बिना अनुभव और विचार के काम करने वाला होता है जिसका परिणाम इस लोक और परलोक में दुःखप्रद होता है । वह अश्व, गो, महिष, गवेलक (बकरी, भेड़), दास, दासी, कर्मकर और पुरुष - समूह से जीवन भर निवृत्ति नहीं कर सकता, अर्थात उसका आत्मा त्याग मार्ग में प्रवृत्त होता ही नहीं । उसकी प्रवृत्ति सदा भोग की ओर ही होती है । वह माषक या अर्द्ध-माषक, रूपक और कार्षापण आदि से जो लोग व्यापार करते हैं उससे भी निवृत्ति नहीं कर सकता । कहने का तात्पर्य यह है कि तोला, मासा, कार्षापण, मुद्रा, सिक्का, रूपया आदि जितने भी सांसारिक व्यवहार के साधन हैं उन्ही में नास्तिक सदा मग्न रहता है । उसके ध्यान में सदा हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, मणि, मौक्तिक, शङ्ख, शिल, प्रबाल आदि की चक्कर लगाते रहते हैं। उनसे निवृत होना उसके लिए प्रायः असम्भव होता है । वह सदा कपट से तोलता है कपट से नापता है । उसके लिए उसमें कोई दोष ही नहीं । उसके चित्त में सदैव अनेक प्रकार के संकल्प, विकल्प उठते रहते हैं । वह कभी आरम्भ - समारम्भ (कृषि - कर्म) के झगड़े में ही निमग्न रहता है, कभी परिताप करता है । सारांश यह निकला कि इन सब से निवृत्त न होने के कारण उसका चित्त कभी शान्त नहीं रह सकता वह स्वयं हिंसा करता है और लोगों को हिंसा का उपदेश करता हे, स्वयं पकाता है और दूसरों से पकवाता है । इसके अतिरिक्त कूटना, पीटना, तर्जन, ताडन, बध, बन्ध और अनेक प्रकार के क्लेश सदा उसके पीछे पड़े ही रहते हैं । इनसे निवृत्त होना उसके लिए असम्भव है । दूसरे प्राणियों को पीड़ा पहुचाने वाले, अबोध उत्पन्न करने वाले तथा ग्राम-घात आदि क्रूर कर्मों से उसकी निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वह जिन सिद्धान्तों को स्वीकार करने से ऊपर वर्णन की गई सब क्रियाएं विविध प्रकार से की जाती हैं ।
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अब सूत्रकार अन्य अधार्मिक क्रियाओं का विषय वर्णन करते हैं:
से जहा - नामए केइ पुरिसे कलम-मसूर - तिल- मुग्गमास-निप्फाव-कुलत्थ-आलिसंदग जवजवा एवमाइएहिं अयत्ते कूरे
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