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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
प्रत्येक स्थान पर अधर्म का अनुमोदन करता हुआ, फलतः अधर्म का अनुगामि हो जाता है | श्रुत और चारित्र धर्म का सर्वथा त्याग कर अधर्म को ही अपना इष्ट (प्रिय) बना लेता है और निरन्तर उसकी सेवा करने में लगा रहता है । वह अधर्म को ही देखता है और उसी से राग आलापने लगता है । वह अधर्म को ही अपना आचार व्यवहार और सब कुछ समझता है और उसी से अपनी आजीविका करता हुआ विचरण करता है । उसकी वृत्ति धर्म की निन्दा कर लोगों पर अपना प्रभाव जमाने की हो जाती है ।
सूत्र में दिये हुए "अधर्म - प्रजनक " इस समस्त पद का निम्नलिखित अर्थ है:
"अधर्मं प्रकर्षेण जनयति लोकानामपीति - अधर्म - प्रजनकः ! क्वचिद् "अधम्म - पलज्जणे " इति पाठोऽपि दृश्यते तत्राधर्म-प्रायेषु कर्मसु प्रकर्षेण रज्यते - आसज्जति इति अधर्म-प्ररज्ञनः । 'रलयोरैक्यमिति' रकारस्य स्थाने लकारोऽत्र विहितः ।" 'अधर्म-प्रजनक' का अर्थ लोक में अधर्म उत्पन्न करता हुआ ।
षष्ठी दशा
अतः सिद्धान्त यह निकला कि नास्तिक अपने जीवन को पाप - मय बनाता है । वह सदाचार को दूर कर कदाचार में लग जाता है ।
इसके अनन्तर नास्तिक की क्या दशा होती है इसका वर्णन निम्नलिखित सूत्र में करते हैं:
"हण, छिंद, भिंद, " विकत्तए, लोहिय-पाणी, चंडे, रूद्दे, खुद्दे, असमिक्खियकारी, साहस्सिए, उक्कंचण, वंचण, माई, नियडि, कूडमाई, साइ-संपओग, बहुले, दुस्सीले दुप्परिचए, दुचरिए, दुरणुणेया, दुव्वए, दुप्पडियानंदे, निस्सीले निव्वए, निग्गुणे, निम्मेरे, निपच्चक्खाण-पोसहोववासे, असाहु ।
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"जहि, छिन्धि, भिन्धि" विकर्तकः, लोहित-पाणिः, चण्डः, रुद्रः, क्षुद्रः, असमीक्षितकारी, साहसिकः, उत्कञ्चनः, वञ्चनः मायी, निकृतिः, कूटमायी, साति-संप्रयोग-बहुलः, दुश्शीलः दुष्परिचयः, दुश्चर्यः, दुरनुनेयः, दुर्व्रतः, दुष्प्रत्यानन्दः, निश्शीलः, निर्व्रतः, निर्गुणः, निर्मर्यादः, निष्प्रत्याख्यान-पोषधोपवासः, असाधुः ( स नरः पापकारित्वात्) ।
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