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षष्ठी दशा
पांचवीं दशा में दश समाधियों का वर्णन किया गया है । संसार में समाधि प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है | साधु-वृत्ति से समाधि प्राप्त करना अति उतम है, किन्तु यह सम्भव नहीं कि प्रत्येक साधु-वृत्ति से ही समाधि प्राप्त कर सके । संसार में अधिक संख्या ऐसे व्यक्तियों की है जो साधनाभाव से साधु-वृत्ति ग्रहण नहीं कर सकते, अतः उनको उचित है कि वे श्रावक-वृति से उसकी (समाधि की) प्राप्ति करें । इस छठी दशा में पांचवीं दशा से सम्बन्ध रखते हुए सूत्रकार श्रावक की एकादश प्रतिमाओं (प्रतिज्ञाओं) का वर्णन करते हैं । यही इसका विषय भी है |
इन प्रतिमाओं को उपासक-प्रतिमा भी कहते हैं । साधुओं के समीप जो धर्म-श्रवण की इच्छा से बैठे उसको उपासक कहते हैं, जैसे-"उप-समीपम् आस्ते-निषीदति धर्मश्रवणेच्छया साधूनामिति-उपासकः” उपासक-द्रव्य, तदर्थ, मोह और भाव भेद से चार प्रकार के होते हैं । इन के लक्षण निम्नलिखित है:
१. द्रव्योपासक-उसको कहते हैं जिसका शरीर उपासक होने के योग्य हो, जिसने उपासक-भाव के आयुष्कर्म का बन्ध कर लिया हो तथा जिसके नाम-गोत्रादि कर्म उपासक-भाव के सम्मुख आगये हों ।
२. तदर्थोपासक-उसको कहते हैं जो किसी पदार्थ के मिलने की इच्छा रखता हो । वह इच्छा सचित्त, अचित्त और मिश्रित पदार्थों के भेद से तीन प्रकार की होती है। सचित्त भी द्विपद और चतुष्पद भेद से दो प्रकार के होते हैं । पुत्र, मित्र, भार्या और दास आदि के लिए जो इच्छा होती है, उसको द्विपद कहते हैं और गौ आदि पशुओं की इच्छा
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