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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
षष्ठी दशा
'चतुष्पद' इच्छा कहलाती है । सारांश यह निकला कि जो व्यक्ति पुत्र, मित्र, धन, धान्य
और गौ आदि सांसारिक पदार्थ और जीवों की उत्कट इच्छा रखते हुए उनकी प्राप्ति के लिए उपासना करे उसको तदर्थोपासक कहते हैं ।
३. मोहोपासक-उसे कहते हैं जो अपनी काम-वासनाओं को तृप्त करने के लिए युवा युवति और युवति युवा की उपासना करते हैं, परस्पर अन्ध-भाव से एक दूसरे की आज्ञा पालन करते हैं, और एक दूसरे के न मिलने पर मोहवश प्राण तक न्योछावर कर देते हैं । ३६३ पाखंड मत मोहोपासक हैं । ऐसे व्यक्ति मोहनीय कर्म के उदय से सत्य पदार्थ को तो देख ही नहीं सकते, अतः मिथ्या-दर्शन को ही अपना सिद्धान्त बनाकर तल्लीन हो जाते हैं । इसी सिद्धान्त की उपासना को वे सब कुछ मान बैठते हैं । यही उनका स्वर्ग है यही उनका अपवर्ग (मोक्ष) है ।
४. भावोपासक-उसको कहते हैं जो सम्यग् दृष्टि और शुभ परिमाणों से ज्ञान, दर्शन और चरित्रधारी श्रमण की उपासना करता है । श्रमण की उपासना केवल गुणों के लिए की जाती है, जिस प्रकार गाय की उपासना दूध के लिए | भावोपासक को ही श्रमणोपासक और श्रावक भी कहते हैं । जो धर्म को सुनता है और सुनाता है उसको श्रावक कहते हैं, जैसे-“श्रृणोति श्रावयति वा श्रावकः ।
यहां प्रश्न यह उठता है कि यदि सुनने और सुनाने वाले को श्रावक कहते हैं तो गणधर तथा अन्य साधु भी श्रावक ही हैं, क्योंकि वे भी श्री भगवान् के मुख से शब्दों को सुनते हैं और अपने शिष्य और जनता को धर्मोपदेश सुनाते हैं, अथवा सारा संसार ही श्रावक हो सकता है क्योंकि इसमें प्रत्येक व्यक्ति सदैव कुछ न कुछ सुनता और सुनाता ही रहता है । उत्तर में कहा जाता है कि ठीक है यदि 'श्रावक' शब्द का सामान्य यौगिक अर्थ लिया जाय तो वह गृहस्थों के समान गणधर और अन्य साधुओं के लिए भी प्रयुक्त हो सकता है, किन्तु यहां यह शब्द योग-रूढ है जो केवल धर्म सुनने और सुनाने वाले गृहस्थों के लिए ही प्रयुक्त होता है । जैसे 'गौ' शब्द-"गच्छति-इति गौ” इस व्युत्पत्ति से गमन-शील प्राणिमात्र के लिए प्रयुक्त हो सकता है, किन्तु गौ व्यक्ति विशेष में योग-रूढ़ होने के कारण उसी को बताता है ।
शास्त्र में धर्म-अनगार और गृहस्थ दो प्रकार का प्रतिपादन किया है । उनमें से गृहस्थ के लिए ही श्रावक शब्द का प्रयोग किया गया है । एक वास्तविक श्रावक प्रायः
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