________________
पंचमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
यथा दग्धानां बीजानां न जायन्ते पुनरङ्कुराः । कर्म- बीजेषु दग्धेषु न जायन्ते भवाङ्कुराः ।। १५ ।।
पदार्थान्वयः - जहा- जैसे दड्ढाणं- जले हुए बीयाणं- बीजों से पुण-फिर अंकुरा- अंकुर न जायन्ति-उत्पन्न नहीं होते इसी प्रकार कम्म- बीएसु-कर्म-रूपी बीजों के दड्ढेसु - जल जाने पर भवंकुरा- भवरूपी अंकुर न जायंति - उत्पन्न नहीं होते ।
मूलार्थ - जैसे दग्ध बीजों से अङ्कुर उत्पन्न नहीं होते इसी प्रकार कर्म-बीजों के दग्ध हो जाने पर जन्म-मरण-रूपी अङ्कुर नहीं हो सकते।
१५७
टीका - इस सूत्र में भी उपमा द्वारा प्रतिपादन किया गया है कि मुक्त आत्माओं का पुनर्जन्म नहीं होता । जिस प्रकार दग्ध बीजों से अंकुर नहीं होते इसी प्रकार कर्म रूपी बीजों के दग्ध होने पर भी जन्म-मरण - सम्बन्धी अङ्कुर उत्पन्न नहीं हो सकते । मोक्ष किसी कर्म विशेष का फल नहीं प्रत्युत कर्म-क्षय की ही मोक्ष संज्ञा होती है । कर्म ही एक कारण है जिससे आत्मा को पुनः पुनः संसार-चक्र में आना पड़ता है । यदि इस मूल कारण (कर्म) को जड़ से उखाड़ कर फेंक दिया जायगा तो आत्मा निज स्वरूप में प्रविष्ट होकर निःसन्देह निर्वाण-पद की प्राप्ति कर सकेगा । अतः सांसारिक सुख, दुःख, भय, चिंता आदि से छुटकारा पाने के लिए कर्म - बीजों के नाश के लिये सदैव प्रयत्न - शील होना चाहिए ।
T
इस सूत्र में - 'ग्धेभ्यः बीजेभ्यः पञ्चमी के स्थान पर 'दग्धानां बीजानां षष्ठी का प्रयोग भी इस बात को सिद्ध करता है कि आत्मा स्वयं संसार-चक्र में फँसा हुआ नहीं है किन्तु कर्मों के फेर में आकर वह यहां फँस जाता है ।
अब सूत्रकार अन्तिम समाधि का विषय वर्णन करते हैं :
चिच्चा ओरालियं बोंदि नाम-गोयं च केवली ।
आउयं वेयणिज्जं च छित्ता भवति नीरए ।। १६ ।।
त्यक्त्वौदारिकं बोंदिं नाम गोत्रं च केवली ।
आयुष्कं वेदनीयं च छित्त्वा भवति नीरजः ।। १६ ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org