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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
चतुर्थी दशा
भवइ-है अहाविधि-यथाविधि संविभइत्ता-विभाग करने वाला भवइ-है से तं-यही उवगरण-उपकरण उप्पायणया-उत्पादनता है ।।
मूलार्थ- उपकरण-उत्पादनता-विनय किसे कहते हैं ? उपकरण-उत्पादनता विनय के चार भेद प्रतिपादन किये गये हैं, जैसे-अनुत्पन्न उपकरण उत्पन्न करना, पुरातन उपकरणों की रक्षा या संगोपना करना, जो उपकरण कम हों उनका उद्धार करना और यथाविधि उपकरणों का विभाग करना । यही उपकरण-उत्पादनता-विनय
टीका-इस सूत्र में उपकरण-उत्पादन का विषय वर्ण किया गया है | उपकरण त्पादन करना शिष्यों का कर्तव्य हैं क्योंकि यदि पात्रादि उपकरण गच्छ में न रहेंगे तो गणी गच्छ में वितीर्ण कहां से करेगा । शिष्यों की ही सहायता से गणी का कार्य निर्विघ्न चल सकता है । यदि गणी स्वयं इस भार को अपने ऊपर ले तो उसके स्वाध्यायादि में विघ्न पड़ेगा । दूसरे में जितने पुरातन उपकरण हैं, उनकी यथोचित रक्षा करना भी शिष्य का ही कर्तव्य है । जैसे-शीतकाल के उपयोगी वस्त्रों को शीतकाल की समाप्ति पर सुरक्षित स्थान पर रखना, जिससे दूसरे शीतकाल में फिर काम आ सकें, फटे हुए वस्त्रों को सीना और चतुर्मास में कम्बल आदि वस्त्रों को जीवोत्पत्ति से बचाना और उनको किसी ऐसे स्थान पर रखना जहां चोरों का भय न हो और उपकरणों की रक्षा उचित रीति से हो जाये इत्यादि ।
जिस मुनि के पास अल्पोपधि है (उपकरण कम हो गये हैं) और उसको अन्य उपधि की आवश्यकता हो तो उसको अपने पास से उपधि दे देनी चाहिए । वस्त्र, जल, अन्न आदि का यथाविधि विभाग करना चाहिए । जैसे-रत्नाकर को रत्नाकर के योग्य और उपाधि-धारी मुनि को उसके योग्य ही वस्त्रादि प्रदान करने चाहिएं । इसी तरह जो अन्न जिसके योग्य हो वही उसको देना चाहिए ।
सारांश यह निकला यदि सब कार्य इसी क्रम से ठीक चलेंगे तो विना किसी कष्ट के गण में संगठन हो जायेगा, क्योंकि संग्रह का मूल कारण न्याय-पूर्वक रक्षा करना ही
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