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पंचमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
अभिलाषा छोड़ दी हो, जो भयङ्कर से भयङ्कर कष्टों को सहन करने वाला अर्थात् देव-कृत उपसर्ग (आपत्ति) आदि का सहन करने वाला हो, सम्पूर्ण सत्रह भेद सहित संयम- क्रियाओं का पालन करने वाला हो, बारह प्रकार के तप का साधन करने वाला हो और निरन्तर यत्न-शील हो उसी को अवधि- ज्ञान होता है । इस अवधि - - ज्ञान के द्वारा वह समग्र लौकिक मूर्त पदार्थों को देखता है और उससे उसके चित्त में शान्त- रसमयी समाधि का सञ्चार होता है । किन्तु यह बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए कि उक्त-गुण-सम्पन्न व्यक्ति को ही अवधि - ज्ञान और उसकी सहायता से पैदा होने वाली समाधि की प्राप्ति हो सकती है, अतः उक्त गुणों के सञ्चय के लिए पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए ।
अब सूत्रकार अवधि - दर्शन का विषय वर्णन करते हैं:तवसा अवहटुलेस्सस्स दंसणं परिसुज्झइ ।
उड्ढं अहे तिरियं च सव्वमणुपस्सति ।। ६ ।।
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तपसापहृत-लेश्यस्य दर्शनं परिशुद्ध्यति ।
ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च सर्वमनुपश्यति ।। ६ ।।
पदार्थान्वयः - तवसा - तप से अवहट्टु-लेस्सस्स - जिसने कृष्णादि अशुभ लेश्याओं को नाश या दूर किया हो उसका दंसणं-अवधि - दर्शन परिसुज्झइ - शुद्ध (निर्मल) हो जाता है और फिर वह उड्ढं-ऊर्ध्व-लोक अहे - अधोलोक च- और तिरियं तिर्यक् - लोक में रहने वाले जीवादि पदार्थों को सव्वं सब प्रकार से अणुपस्सति - देखता है ।
मूलार्थ - जिसने अशुभ लेश्याओं को तप से दूर किया है उसका अवधि-दर्शन निर्मल हो जाता है और फिर वह ऊर्ध्व-लोक, अधो-लोक और तिर्यक्-लोक में रहने वाले जीवादि पदार्थों को सब तरह से देखने लगता है ।
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टीका - इस सूत्र में वर्णन किया गया है कि जिस व्यक्ति ने कृष्णादि अशुभ श्याओं को आत्म-प्रदेशों से दूर कर तप द्वारा उनकी शुद्धि की हो उसके आत्मा का अवधि - दर्शन निर्मल हो जाता है और उस दर्शन की सहायता से वह ऊर्ध्व लोक, अधोलोक और तिर्यक् लोक में रहने वाले जीवादि पदार्थों के स्वरूप को सब तरह से
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