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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
और चरित्र की समाधि प्राप्त करने वाले और समाधि के मूल कारण आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म-ध्यानादि से आत्मा की विशुद्धि करने वाले व्यक्तियों को पूर्व अनुत्पन्न निम्नलिखित दश चित्त-समाधि-स्थान उत्पन्न हो जाते हैं ।
पंचमी दशा
प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'समिति' और गुप्ति में परस्पर क्या अन्तर है ? उत्तर में कहा जाता है कि योगों का निरोध करना गुप्ति कहलाती है । जैसे मनः समिति का तात्पर्य अकुशल मन की निवृत्ति और कुशल की प्रवृत्ति होता है, किन्तु मनोगुप्ति का अर्थ कुशल और अकुशल दोनों प्रकार के मन का तथा सत्य-मनोयोग, असत्य - मनोयोग, मिश्र - मनोयोग और व्यवहार- मनोयोग-चार प्रकार के मनोयोगों का निरोध करना है । इसी प्रकार वचन - - गुप्ति और काय - - गुप्ति के विषय में भी जानना चाहिए ।
"आय - जोइणं" इस शब्द में "णं" को पृथक् कर वाक्यालङ्कार अर्थ में माना जाय तो अवशिष्ट का 'आत्म - योगी' संस्कृतानुवाद होना, जिसका अर्थ अध्यात्मयोग-वृत्ति करने वाले तथा "आत्तायोगी" मन, वचन और काय को वश करने वाले होता है । यदि 'आत्मायोगी' इस प्रकार पाठ परिवर्तन किया जाय तो संयम व्यापार में श्रेष्ठ योगों को धारण करने वाले यह अर्थ भी हो सकता है ।
सूत्र में आये हुए "पाक्षिक - पौषध" का निम्नलिखित तात्पर्य है "पक्षे भवः पाक्षिकः । पक्षशब्देन पक्षसमाप्तिरिह विवक्षिता, पदैकदेशेऽपि पदस्य (पदसमुदायस्य च ) उपचारात् । तेन पक्षपरिपूरकस्य पथ्यदनमित्यर्थः । पौषधः - उपवासकरणम् । अथवा पौषधः-चतुर्दश्यष्टम्यौ– पाक्षिकः पौषध इति पाक्षिक - पौषधस्तस्मिनू ।" अर्थात् पाक्षिक दिनों में उपवासादि करने वाले । उपलक्षण से श्रावकादि के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए ।
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अब सूत्रकार दश चित्त - समाधि - स्थानों का नामाख्यान करते हैं:
धम्म-चिंता वा से असमुप्पण्ण-पुव्वा समुप्पज्जेज्जा सव्वं धम्मं जाणित्तए; सुमिण दंसणे वा से असमुप्पण्ण-पुव्वे समुप्पज्जेज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए, सण्णि-जाइ- सरणेणं सण्णि-ण्णाणं वा से असमुप्पण्ण-पुव्वे समुप्पज्जेज्जा अप्पणो पोराणियं जाई सुमरित्तए; देव-दंसणे वा से असमुप्पण्ण-पुव्वे
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