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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
पंचमी दशा
देखता है । पूर्व-अनुत्पन्न केवल-ज्ञान-युक्त मृत्यु हो जाने पर सब दुःखों से छूट जाता है ।
टीका-इस सूत्र में शेष पांच समाधियों का वर्णन किया गया है । जैसे-जब आत्मा में सामान्य रूप से देखने वाला अवधि-दर्शन उत्पन्न हो जाता है तब आत्मा उसकी सहायता से सांसारिक सब मूर्त पदार्थों को सामान्य रूप से देखने लगता है, और जब आत्मा मन:-पर्यव-ज्ञान से युक्त होता है तब वह मनुष्य लोक के भीतर अढ़ाई द्वीप समद्रों के मध्य में रहने वाले मन-संज्ञा-युक्त पञ्चेन्द्रिय-पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को जानता है, इससे आत्मा में एक प्रकार का अलौकिक आनन्द उत्पन्न होता है, उसी का नाम समाधि है । जिस आत्मा को पहले केवल-ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ, यदि उत्पन्न नहीं हुआ, उत्पन्न हो जाय तो वह उस दर्शन के द्वारा लोकालोक को देखता है, इससे उसको पूर्ण समाधि उत्पन्न हो जाती है । अनन्त बार जन्म-मरण के बन्धन में आने से आत्मा दुःखों से विभुक्त नहीं हो सका, यदि केवल-ज्ञान-युक्त मृत्यु हो जाय तो आत्मा सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है, इससे पूर्णानन्द पद की प्राप्ति हो सकती है और इससे उच्च सादि अनन्त पद की उपलब्धि भी होती है । यही दसवां समाधि-स्थान है । यही सर्वोत्तम भी है । किन्तु इन दशों स्थानों के ध्यान पूर्वक अवलोकन से भली भांति सिद्ध होता है कि धर्म-चिन्ता करने से ही मोक्ष-पद की प्राप्ति हो सकती है, क्योंकि शेष सब स्थान उसी के अनन्तर हो सकते हैं, अतः आत्म-समाधि प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्राणी को धर्म-चिन्ता करनी चाहिए ।
अब सूत्रकार उक्त समाधि-स्थानों का पद्यों में वर्णन करते हुए कहते हैं :ओयं चित्तं समादाय झाणं समुप्पज्जइ । धम्मे ठिओ अविमाणो निव्वाणमभिगच्छइ ।। १ ।। ओजश्चित्तं समादाय ध्यानं समुत्पद्यते । धर्मे स्थितोऽविमना निर्वाणमभिगच्छति ।। १ ।।
पदार्थान्वयः-ओयं-निर्मल (राग-द्वेष-रहित) चित्तं-चित्तं को समादाय-ग्रहण कर झाणं-धर्म-ध्यानादि समुप्पज्जइ-उपार्जन करता है धम्मे-धर्म में ठिओ-स्थित होकर अविमणो-शङ्का-रहित निव्वाणं-निर्वाण-पद को अभिगच्छइ-प्राप्त करता है ।
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