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पंचमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
मूलार्थ - राग और द्वेष से रहित चित्त धारण करने से आत्मा धर्म-ध्यानादि की प्राप्ति करता है और शङ्का रहित धर्म में स्थित हुआ निर्वाण-पद की प्राप्ति करता है |
टीका- गद्य में संक्षेप रूप से दश समाधि - स्थानों का वर्णन कर अब सूत्रकार पद्यों से उनका विस्तृत वर्णन करते हैं । इस सूत्र में प्रथम स्थान का वर्णन किया गया है । जिसके चित्त में राग-द्वेष नहीं तथा जिसका चित्त कषाय और कालुष्य के परिणाम के अभाव से निर्मल और स्वच्छ है, वही आत्मा ध्यान की प्राप्ति कर सकता है तथा सर्ववृत्ति - - रूप और देश- वृत्ति - रूप धर्म में असन्दिग्ध भाव से स्थित होकर निर्वाण - पद की प्राप्ति कर लेता है । अतः समाधि के लिए ओजः- राग द्वेष रहित चित्त से ही प्रवृत्त होना चाहिए ।
अब सूत्रकार जाति - स्मरण - ज्ञान के विषय में कहते हैं:
ण इमं चित्तं समादाय भुज्जो लोयंसि जायइ | अप्पणो उत्तमं ठाणं सन्नि-णाणेण जाणइ ।। २ ।।
नेदं चित्तं समादाय भूयो लोके जायते ।
आत्मन उत्तमं स्थानं संज्ञि ज्ञानेन जानाति ।। २ ।।
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पदार्थान्वयः - इमं - इस प्रकार चित्तं-चित्त को समादाय धारण कर वह भुज्जो - पुनः पुनः लोयंसि - लोक में ण जायइ उत्पन्न नहीं होता किन्तु अप्पणो - अपने उत्तमं - उत्तम ठाणं - स्थान को सन्नि - णाणेण - संज्ञि - ज्ञान से जाणइ - जानता है ।
मूलार्थ - इस प्रकार के चित्त को धारण कर आत्मा पुनः पुनः लोक में उत्पन्न नहीं होता और अपने उत्तम स्थान को संज्ञि- ज्ञान से जान लेता है ।
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टीका - जाति - स्मरण - रूप चित्त को धारण कर फिर आत्मा त्रस और स्थावर लोक में उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि उक्त ज्ञान की सहायता से एक तो वह अपने पूर्व जन्मों को-जो संज्ञिरूप में हो चुके हैं जानता है और दूसरे में अपना कर्तृत्व-भाव तथा भोग - कृत्व-भाव भी भली प्रकार जान लेता है ।
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