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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
आत्मा का उत्तम स्थान समाधि है, जिसके द्वारा वह शिव-गति प्राप्त कर सकता है । सम्यग् - दर्शन, सम्यग् - ज्ञान और सम्यक् - चरित्र भी आत्मा का उत्तम स्थान है । इससे आत्मा निर्वाण-पद प्राप्त कर सकता है और जाति-स्मरण ज्ञान से उत्तम स्थान जान सकता है । अथवा संयम के असंख्यात स्थानों में से विशुद्ध स्थान ही उत्तम स्थान हैं उनको ज्ञान द्वारा जान लेता है ।
अब सूत्रकार यथार्थ स्वप्न के विषय में कहते हैं:
अहातच्चं तु सुमिणं खिप्पं पासेति संवुडे ।
सव्वं वा ओहं तरति दुक्ख दोय विमुच्चइ ।। ३ ।।
यथातथ्यं तु स्वप्नं क्षिप्रं पश्यति संवृतः ।
सर्वं वौघं तरति दुःख द्वयेन विमुच्यते ।। ३ ।।
पदार्थान्वयः - अहातच्चं - यथातथ्य सुमिणं - स्वप्न को संवुडे - संवृतात्मा पासइ-देखता है । वह सव्वं - सब प्रकार से ओहं संसार रूपी समुद्र को खिप्पं- शीघ्र ही तरति - पार करता है और दुक्ख दोय-दो प्रकार के दुःखों से विमुच्चइ- छूट जाता है तु शब्द शीघ्र फल प्राप्ति का बोधक है और वा - विकल्पार्थक |
मूलार्थ - संवृतात्मा यथातथ्य स्वप्न को से संसार रूपी समुद्र से पार हो जाता है मानसिक दुःखों से भी छूट जाता है ।
पंचमी दशा
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देखकर शीघ्र ही सब प्रकार और साथ ही शारीरिक और
टीका - इस सूत्र में स्पष्ट किया गया है कि यथार्थ स्वप्न किसको आता है और उसका क्या परिणाम होता है ? जैसे संयत (इन्द्रिय और मन की दुष्प्रवृत्तियों को हर प्रकार से रोकने वाला) आत्मा ही यथार्थ स्वप्न देखता है और उसका फल भी उसको शीघ्र ही मिल जाता है । स्वप्न-दर्शन के प्रताप से वह आत्मा, व्यवहार नय के अनुसार, सब प्रकार से संसार - रूपी समुद्र से पार हो जाता है और साथ ही शारीरिक तथा मानसिक साता और असाता (दुःखादुःख) या आठ प्रकार के कर्म-बन्धन से छूट जाता है ।
प्रश्न हो सकता है कि क्या स्वप्न से आत्मा को मोक्ष की उपलब्धि हो सकती है? उत्तर में कहा जाता है कि सूत्रोक्त कथन व्यवहार नय के ही अनुसार किया गया है,
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