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पंचमी दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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के कारण-सर्वमान्य है । यदि इन सब भावों का ध्यान रखते हुए धर्म-चिन्तना की जायगी तो आत्मा अवश्य ही आत्म-समाधि प्राप्त करेगा और साथ ही जीव और निर्जीव आदि के भावों को ठीक-२ जानकर उपयोग-पूर्वक श्रुत-धर्म के द्वारा अपना और दूसरों का कल्याण कर सकता है । धर्म-ज्ञान ही आत्म-समाधि का मूल कारण है और वह बिना धर्म-चिन्ता के नहीं हो सकता, अतः सिद्ध हुआ कि वास्तव में धर्म-चिन्ता ही आत्म-समाधि का मूल कारण है ।
(वा) शब्द यहां विकल्पार्थ में जानना चाहिए ।
यदि धर्म-चिन्ता करते हुए कोई साधु निद्रावस्था को प्राप्त हो जाय और निद्रा में उसको ज्ञानान्तर-दर्शन अर्थात् स्वप्न-दर्शन हो, और उस स्वप्न में यदि वह पूर्व अननुभूत (जिसका पहिले दर्शन या ज्ञान नहीं हुआ ) अलौकिक आनन्द देने वाले मोक्ष का अनुभव करे और फलतः वह दर्शन यथार्थ फल देने वाला हो तो चित्त को समाधि की प्राप्ति हो जाती है । सारांश यह निकला कि यथार्थ स्वप्न-दर्शन से चित्त समाधि प्राप्त करता है, किन्तु ध्यान रहे कि यदि वह श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के दश स्वप्नों के समान मोक्ष रूप ही हो तभी भाव-समाधि आ सकती है यदि स्वप्न द्वारा सांसारिक पदार्थों की उपलब्धि होकर चित्त को समाधि प्राप्त हो तो वह भाव-समाधि है । अतः धर्म-चिन्ता द्वारा यथार्थ स्वप्न-दर्शन भी चित्त-समाधि का एक मुख्य कारण है । ___ कहीं-२ “सुजाणं” ऐसा पाठ भी मिलता है । इसका अर्थ यह होता है कि सुगति का देखना और सुज्ञान का होना समाधि का मुख्य कारण है ।
इसी के आधार पर लोगों ने 'इल्हाम' की कल्पना की ऐसा प्रतीत होता है, वास्तव में यह यथार्थ स्वप्न ही है ।
जिसको निःसन्देह रूप से ठीक-२ संज्ञि-ज्ञान अर्थात् जाति-स्मरण ज्ञान हो जाता है, वह उस ज्ञान की सहायता से अपने पुरातन जन्मों का स्मरण कर लेता है और उस स्मरण से चित्त में एक अलौकिक आनन्द की उत्पत्ति होती है । हेतु-वाद, दृष्टि-वाद
और दीर्घ-कालिक-वाद में से दीर्घ-कालिक-वाद ही जाति-स्मरण ज्ञान का मूल कारण है । जिस आत्मा में मन का प्रादुर्भाव होता है वही ईहापोह द्वारा पूर्व-जाति का स्मरण कर सकता है । इससे आपका चित्त शान्त और प्रसन्न हो जाता है और वह वैराग्य ग्रहण कर अपने आत्मा के कल्याण में लग जाता है ।
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