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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
चतुर्थी दशा
क्रोध शान्त करे जिस तरह वजुल वृक्ष की छाया विष-विकार को दूर करती है । दूसरा भेद दुष्ट के दोष को दूर करना है । अर्थात् यदि किसी का चित्त कषायादि दोषों से दुष्ट हो गया हो तो गणी को चाहिए कि उसको आचार और शील की शिक्षा देकर उसके दोष दूर करे । तीसरा भेद काङ्क्षा वाले व्यक्ति की काङ्क्षाओं का दूर करना है । जैसे-किसी को यदि भोजन, जल, वस्त्र, पात्र, विहार-यात्रा, विद्याध्ययन या अन्य पदार्थों की आकाङ्क्षा हो तो गणी को उचित उपायों से उसको दूर करना चाहिए | यदि सम्यक्त्व के विषय में आकाङ्क्षा दोष उत्पन्न हो गया हो तो उसका भी निराकरण करना चाहिए ओर अपने आत्मा को उक्त दोषों से विमुक्त कर जीवादि पदार्थों की अनुप्रेक्षा में लगाना चाहिए, अर्थात् आत्मा को अपने वश में कर समाधि की ओर लगाना चाहिए, इसी का नाम दोष-निर्घातन-विनय है । ___इस प्रकार आचार्य द्वारा सुशिक्षित होकर शिष्य का भी कर्तव्य है कि वह आचार्य के प्रति विनयशील बने ।
अब सूत्रकार इसी विषय का प्रतिपादन करते हैं:
तस्सेवं गुणजाइयस्स अंतेवासिस्स इमा चउ-विहा विणय-पडिवत्ती भवइ, तं जहा-उवगरण-उप्पायणया, साहिल्लया, वण्ण-संजलणया, भार-पच्चोरुहणया । ___ तस्यैवं गुणजातीयस्यान्तेवासिन एषा चतुर्विधा विनय-प्रतिपत्तिर्भवति, तद्यथा-उपकरणोत्पादनता, सहायता, वर्णसंज्वलनता, भार-प्रत्यवरोहणता ।
___ पदार्थान्वयः-तस्स-उस गुणजाइयस्स-गुणवान् अंतेवासिस्स-शिष्य की एवं-इस प्रकार इमा-ये चउविहा-चार प्रकार की विणय-पडिवत्ती-विनय-प्रति-पत्ति भवइ-होती है, अर्थात् गुरु-भक्ति होती है तं जहा-जैसे-उवगरण-उपकरण की उप्पायणया-उत्पादनता साहिल्लया-सहायता वण्ण-संजलणया-गुणानुवाद करना भार-पच्चोरुहणयाभार-निर्वाहकता ।
मूलार्थ-उस गुणवान् शिष्य की चार प्रकार की प्रतिपत्ति वर्णन की गई है, जैसे-उपकरणोत्पादनता, सहायता, गुणानुवादकता, भार-प्रत्यव-रोहणता ।
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