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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
सुहाए - सुख के लिए खमाए - सामर्थ्य के लिए निस्से साए - कल्याण के लिए अनुगामियत्ताए – अनुगामिकता के लिए अब्भुट्टेत्ता उद्यत भवइ हो । से तं-यही विक्खेवणा-विण-विक्षेपणा - विनय है ।
चतुर्थी दशा
मूलार्थ - विक्षेपणा - विनय किसे कहते हैं ? विक्षेपणा - विनय चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे- जिसने पहिले धर्म नहीं देखा उसको धर्म-मार्ग दिखाकर सम्यक्त्वी बनाना, सम्यक्त्वी को सर्व व्रती बनाना, धर्म से गिरे हुए को धर्म में स्थिर करना, उसी धर्म के हित के लिए, सुख के लिए, मोक्ष के लिए और अनुगामिकता के लिए उद्यत होना-यही विक्षेपणा - विनय है |
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टीका - इस सूत्र में विक्षेपणा - विनय का विषय प्रतिपादन किया गया है और वह भी पूर्व सूत्रों के समान प्रश्नोत्तर रूप में ही । शिष्य प्रश्न करता है - हे भगवन् ! विक्षेपणा - विनय किसे कहते हैं ? गुरू उत्तर देते हैं- हे शिष्य ! जब श्रोता का चित्त पर - समय पर किये जाने वाले आक्षेपों से क्षुब्ध हो जाये उस समय उसको स्व-सयम में स्थिर करना ही विक्षेपणा - विनय होता है ।
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यह विक्षेपणा - विनय चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे- जिन व्यक्तियों ने पहिले सम्यग्दर्शन रूप धर्म को नहीं देखा उनको सम्यग् - दर्शन में स्थित करना, अर्थात् उनको सम्यग् दर्शन रूप धर्म सिखाना । किन्तु इस बात का ध्यान रहे कि जिस व्यक्ति को सम्यग् - दर्शन रूप धर्म सिखाना हो, उसके साथ इस प्रकार प्रेम और सभ्यता का व्यवहार करना चाहिए जैसे एक दृष्ट - पूर्व और पूर्व-परिचित अतिथि के साथ किया जाता है । यदि उसके साथ प्रेम पूर्वक सम्भाषण किया जायगा तो वह शीघ्र ही मिथ्या वासना का परित्याग कर सम्यग् - दर्शन में स्थित हो सकता है । जब वह सम्यग् - दर्शन युक्त हो जाय तो उसको सर्व-वृत्तिरूप चारित्र शिक्षा देकर सहधर्मी बना लेना चाहिए । इसके अनन्तर उस सम्यग् - दर्शन रूप धर्म में उसके हित के लिए, सुख के जिए उसकी अनन्तर उस सम्यग्–दर्शन रूप धर्म में उसके हित के लिए, सुख भोग के लिए उद्य होना चाहिए, क्योंकि जब इस तरह किया जायगा तभी अपना कल्याण और परोपकार हो सकता है । इसी का नाम विक्षेपणा-विनय है ।
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