________________
११६
दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
चतुर्थी दशा
मूलार्थ-श्रुत-विनय किसे कहते हैं ? श्रुत-विनय चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे-सूत्र का पढ़ाना, अर्थ का पढ़ाना, हित-वाचना का पढ़ाना तथा निःशेष-वाचना का पढ़ाना | इसी का नाम श्रुत-विनय
टीका-इस सूत्र में प्रश्नोत्तर शैली से श्रुत-विनय के चार भेद प्रतिपादन किये हैं । उन में सब से पहला सूत्र का पढ़ाना, जिसका तात्पर्य यह है कि अङ्ग और अनङ्ग शास्त्र, औत्कालिक-श्रुत और कालिक-श्रुत सब को स्वयं घोषादि शुद्धि पूर्वक पढ़ना चाहिए और दूसरों को भी इसी प्रकार पढ़ाना चाहिए । इसी प्रकार अर्थ में भी जानना चाहिए । क्योंकि जब तक अर्थ-वाचना विधि पूर्वक नहीं की जाएगी तब तक सूत्र का मर्म नहीं जाना जा सकता ।
इसके अनन्तर हित-वाचना का विषय आता है । इसका तात्पर्य यह है कि जो जिस श्रुत के योग्य हो अर्थात् जिस श्रुत से जिसका आत्मा हित-साधन कर सके उसको वही श्रुत पढ़ाना चाहिए । यदि अध्ययन करने वाले की योग्यता के बिना देखे ही उसको पढ़ा दिया जायगा तो उसकी आत्मा का अनिष्ट तो होगा ही, साथ ही श्रुत की भी हानि होगी । जिस प्रकार कच्चे घड़े में दूध आदि पदार्थ रखकर पदार्थ और घड़े दोनों से हाथ धोना पड़ता है, उसी प्रकार शिष्य और श्रुत के विषय में भी जानना चाहिए । अतः अध्यापन से पूर्व शिष्य की योग्यता और हिताहित अवश्य देख लेना चाहिए । हिताहित के विवेक से पढ़ाया हुआ श्रुत दोनों में हितकर होता है । व्याख्यान देते हुए भी ऐसा ही व्याख्यान देना चाहिए जिससे उपस्थित जनता को लाभ हो । शिष्य की योग्यता का परिचय करते हुए, उसकी बुद्धि और अवस्था का भी अवश्य ध्यान रखना चाहिए ।
इसके अनन्तर निःशेष-वाचना का विषय है । निःशेष-वाचना में प्रमाणनय, निक्षेप, उपोद्धात, प्रतिज्ञा और हेतु आदि पांच अवयवों द्वारा ही वाचना देनी चाहिए । साथ ही संहिता, पदच्छेद, पदार्थ, पद-विग्रह, चालना (शङ्का) और प्रसिद्धि (समाधान) आदि द्वारा अध्ययन और अध्यापन करना चाहिए । जो शास्त्र प्रारम्भ किया हो, उसको समाप्त किये बिना बीच ही में अन्य शास्त्र प्रारम्भ नहीं करना चाहिए । विघ्नों के उपस्थित होने पर भी प्रारम्भ किये हुए शास्त्र की पूर्ति अवश्य करनी चाहिए ।
यही श्रुत-विनय है । इसके व्याख्यान से भली भांति सिद्ध हो गया कि श्रुत-विनय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org