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पंचमी दशा * H
चौथी दशा में गणि-सम्पदा का वर्णन किया गया है । गणि-सम्पत्ति से परिपूर्ण गणी समाधि-सम्पन्न हो जाता है, किन्तु जब तक उसको चित्त-समाधि का भली भांति ज्ञान नहीं होगा, तब तक वह उचित रीति से समाधि में प्रविष्ट नहीं हो सकता, अतः चौथी दशा से सम्बन्ध रखते हुए, सूत्रकार, इस पांचवीं दशा में चित्त-समाधि का ही वर्णन करते हैं |
जिसके द्वारा चित्त मोक्ष-मार्ग या धर्म-ध्यान आदि में स्थिर रहे उसको चित्त-समाधि कहते हैं । वह-द्रव्य-चित्त-समाधि और भाव-चित्त-समाधि-दो प्रकार की होती है । किसी व्यक्ति की इच्छा सांसारिक उपभोग्य पदार्थों के उपभोग करने की हो, यदि उसको उनकी प्राप्ति हो जाय और उससे चित्त समाधि प्राप्त करे तो उसको द्रव्य-समाधि कहते हैं और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र में चित्त लगाकर उपयोग-पूर्वक पदार्थों का स्वरूप अनुभव करने का नाम भाव-चित्त-समाधि है । अकुशल चित्त के निरोध करने पर और कुशल चित्त के प्रकट होने पर चित्त को अनायास ही समाधि उत्पन्न हो जाती है ।
पञ्च शब्दादि विषयों में साम्य-भाव रखना तथा द्रव्यों का परस्पर साम्य-भाव से एकमय होना ही द्रव्य-समाधि होती है। जिस प्रकार दूध में यदि शक्कर प्रमाण युक्त ही मिलाई जाय तो विशेष रुचिकर हो सकती है और यदि अधिक या न्यून रहेगी तो कभी भी सन्तोष-जनक नहीं हो सकती इसी प्रकार द्रव्य यदि परस्पर उचित प्रमाण में सम्मिलित होंगे तभी द्रव्य-समाधि हो सकती है अन्यथा नहीं । इसी तरह जिस क्षेत्र को प्राप्त कर चित्त, समाधि में लग जाय उसको क्षेत्र-समाधि और जिस काल में चित्त को
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