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प्रथम दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम ।
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अकाल-सज्झायकारए यावि भवइ ।। १४ ।। अकाल-स्वाध्याय-कारकश्चापि भवति ।। १४ ।। पदार्थान्वयः-अकाल-अकाल में (जो), सज्झायकारए-स्वाध्याय करने वाला भवइ-है | मूलार्थ-अकाल में स्वाध्याय करने वाला ।
टीका-इस सूत्र में वर्णन किया है कि स्वाध्याय यद्यपि परम आवश्यक है तथापि वह उचित समय में ही होना चाहिए । संगीत शास्त्र में रागों की तरह श्रुतज्ञान में भी अंग और उप-अङ्गादि शास्त्रों का समय नियत है । जैसे असमय में गान किये हुए राग सुख-प्रद नहीं होते इसी प्रकार असमय का स्वाध्याय भी समाधि के स्थान पर असमाधि-उत्पन्न करने वाला हो जाता है । अतः सिद्ध हुआ कि अकाल में स्वाध्याय करने से असमाधि-स्थान की प्राप्ति होती है ।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि अकाल में स्वाध्याय से असमाधि दोष क्यों माना गया है ? उत्तर इस प्रकार है कि स्थानाङ्गादि शास्त्रों में जो अनध्यायों का वर्णन किया गया है उनके पालन न करने से एक तो आज्ञा-भङ्ग दोष होता है, दूसरे देवाधिष्ठित शास्त्रों का समय तथा स्थान का ध्यान रखे बिना पठन से तत्तत् देवों के प्रतिपादित असमाधि के कारण उपस्थित हो जाते हैं ।
__स्वाध्याय के लिए उचित समय की तरह उचित स्थान भी आवश्यक है । समय-सिद्धि के लिए अधोलिखित उदाहरण देते हैं-पवित्र भोजन जैसे मलादि के स्थान या वर्ण्य-गृह (पुरीषोत्सर्ग स्थान) में सुखप्रद नहीं होता इसी प्रकार स्थान शुद्धि के बिना स्वाध्याय भी सुख-प्रद नहीं माना जाता ।
सिद्ध यह हुआ कि अकाल में स्वाध्याय कदापि न करना चाहिए । यह सर्व-सम्मत है कि विधि पूर्वक स्वाध्याय से ही स्व-इष्ट-देव की सिद्धि हो सकती है । अतः अकाल में स्वाध्याय सर्वथा वर्जित है ।
_ सूत्र में पठित “च" और "अपि” शब्द से दूसरे जितने भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी अनध्याय के कारण हैं उनका ग्रहण करना चाहिए | इन सब को छोड़कर सूत्र-सम्बन्धी स्वाध्याय में प्रवृत्त होना चाहिए । किन्तु इन सब का सूत्र से ही सम्बन्ध है न कि अर्थ-अनुप्रेक्षा से ।
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