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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
मूलार्थ - यही निश्चय से स्थविर भगवन्तों ने बीस असमाधि के स्थान प्रतिपादन किए हैं ।
प्रथम दशा
टीका - इस सूत्र में प्रस्तुत - अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते है कि अनन्तरोक्त स्थविर भगवन्तों ने यही बीस स्थान असमाधि के प्रतिपादन किए हैं । इस कथन का मुख्य उद्देश्य यह है कि इनके अतिरिक्त शेष सब भेद इन्हीं बीस के अन्तर्गत हो जाते हैं ।
उदाहरणार्थ- सूत्रकार ने "कलह-करः " एक असमाधि का स्थान वर्णन किया है, इसके अतिरिक्त सब कलह के कारण इसी के अन्तर्गत हो जाते हैं । जैसे रंग अनेक प्रकार के होते हुए भी प्रधान पांच रंगों में ही आ जाते हैं, इसी प्रकार कलह के अनेक कारणों का एक ही अंक में समावेश हो जाता है ।
जिज्ञासु जनों को असमाधि छोड़कर समाधि-स्थ होना श्रेयस्कर है ।
यह शङ्का हो सकती है कि प्रस्तुत अध्ययन में समाधि - स्थानों का वर्णन न कर सर्व प्रथम असमाधि स्थानों का ही वर्णन क्यों किया ? समाधान में कहा जाता है कि प्रस्तुत अध्ययन में भाव-समाधि की प्राप्ति के लिए ही समाधि तथा असमाधि दोनों स्थानों का वर्णन किया गया है । सूत्रकर्त्ता ने प्रतिपादन किया है कि असमाधि के बीस स्थान हैं । असमाधि शब्द यहां नञ् तत्पुरुष समासान्त पद है । यदि नञ् समास न किया जाए तो यही बीस समाधि स्थान बन जाते हैं, अर्थात् अकार के हटा देने से यही बीस भाव-समाधि के स्थान हैं । जैसे 'ज्ञानावरणीय' शब्द से आवरण हटाकर 'ज्ञान' ही अवशिष्ट रह जाता है, इसी प्रका अकार के हटा देने से 'समाधि-स्थान' बन जाता है । अतः सिद्ध हुआ कि इसी अध्ययन से जिज्ञासु समाधि और असमाधि के स्वरूप भली भांति जान लें ।
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अब सुधर्माचार्य जम्बू स्वामी से कहते हैं - हे जम्बू स्वामिन् ! मैंने जिस प्रकार श्री भगवान् के मुखारविन्द से इस अध्ययन का अर्थ श्रवण किया, उसी प्रकार तुम से प्रतिपादन किया है । अपनी बुद्धि से मैंने कुछ नहीं कहा ।
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