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द्वितीया दशा
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
पदार्थान्वयः - आउसं हे आयुष्मन् शिष्य, मे- मैंने सुयं सुना है, तेणं-उस, भगवया - भगवान् ने एवं इस प्रकार अक्खायं-प्रतिपादन किया है, इह इस जैन - शासन व लोक में, खलु - निश्चय से, थेरेहिं स्थविर, भगवंतेहिं - भगवन्तों एकबीस-इक्कीस, सबला-शबल-दोष, पण्णत्ता - प्रतिपादन किए हैं । शिष्य ने प्रश्न किया, कयरे-कौन से, खलु - निश्चय से, थेरेहिं - स्थविर, भगवंतेहिं भगवन्तों ने ते-वे, एकबीसं - इक्कीस, सबला - शबल-दोष, पण्णत्ता प्रतिपादन किये हैं ? गुरु उत्तर देते हैं । इमे ये, खलु - निश्चय से, ते-वे, एकबीसं - इक्कीस, सबला - शबल-दोष, थेरेहिं स्थविर, भगवंतेहिं भगवन्तों ने, पण्णत्ता - प्रतिपादन किये हैं, तं जहा- जैसे:
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मूलार्थ - हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने सुना है उस भगवान् ने इस प्रकार प्रतिपादन किया है, इस जैन- शासन में स्थविर भगवन्तों ने इक्कीस शबल-दोष प्रतिपादन किए हैं । शिष्य ने प्रश्न किया कि कौन से इक्कीस शबल-दोष स्थविर भगवन्तों ने प्रतिपादन किए हैं ? गुरु ने उत्तर दिया कि स्थविर भगवन्तों ने वक्ष्यमाण इक्कीस शबल-दोष प्रतिपादन किए हैं । जैसे :
टीका - इस सूत्र में पहली दशा की तरह प्रस्तुत दशा का विषय- शबल - दोषों का वर्णन - गुरु शिष्य के प्रश्नोत्तर रूप में ही वर्णन किया गया है । साथ ही इस बात को भी स्पष्ट किया गया है कि श्री भगवान् के वाक्य प्राणि-मात्र के लिए उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) हैं, क्योंकि भगवान् प्राणि - मात्र के हितैषी हैं अतः उनके वाक्य भी प्राणियों के लिए हितकारक हैं ।
सूत्र में "स्थविर भगवन्तों ने शबल दोष के इक्कीस भेद प्रतिपादन किए हैं" यह कथन " अजिणा जिसकासा जिणा इव अवितह - वागरमाणा " सूत्रार्थ की सिद्धि के लिए है; अर्थात् स्थविर भगवान् जिन तो नहीं हैं किन्तु जिन के समान हैं और जिन के समान यथार्थ - वक्ता भी हैं । अतः उक्त विषय स्थविर - प्रतिपादित होने पर भी जिन - प्रतिपादित ही समझना चाहिए । यह दोनों लोकों में हितकारी हैं, अतः प्राणिमात्र को इसे ग्रहण करना चाहिए और भगवत् कथन होने के कारण विनय - पूर्वक सीखना चाहिए ।
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प्रश्न यह हो सकता है कि उक्त विषय भगवान् ने ही प्रतिपादन किया है इस में क्या प्रमाण है ? हो सकता है कि अन्य किसी व्यक्ति ने इसकी रचना कर भगवान् के
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