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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
द्वितीया दशा
का परिवर्तन करना बहुत ही अच्छा है, क्योंकि इस से ज्ञान प्राप्ति के साथ-२ सेवा भी होती रहती है । किन्तु समाधि-इच्छुक को कभी ऐसा न करना चाहिए, क्योंकि इससे समाधि शबल दोष-युक्त हो जाती है । इस के अतिरिक्त ऐसा करने से उस की स्वच्छन्दता बढ़ जाती है और इससे लोगों का उस पर अविश्वास हो जाता है, जो उसको सब प्रकार से अयोग्य बना देता है । कृतज्ञता का भाव तो उसमें अवशिष्ट ही नहीं रह सकता ।
सारे कथन का सारांश यह निकला कि छ: मास के अन्दर एक गण से दूसरे गण में न जाना चाहिए ।
अब सूत्रकार नवम शबल दोष का वर्णन करते हैं:अंतोमासस्स तओ दगलेवे करेमाणे सबले ।। ६ ।। अन्तर्मासस्य त्रीनुदकलेपान् कुर्वन् शबलः ।। ६ ।।
पदार्थान्वयः-मासस्स-एक मास के अंतो-भीतर तओ-तीन दग-लेवे-उदक (जल) के लेप करेमाणे-करते हुए सबले-शबल दोष लगता है ।
मूलार्थ-एक मास के भीतर तीन उदक-लेप करने से शबल दोष लगता है ।
टीका-साधु को आठ मास धर्म प्रचार के लिए देश में भ्रमण करने का विधान है । इस सूत्र में बताया गया है कि यदि मार्ग में नदी जलाशयादि पड़ जावें तो उसे (यात्री साधु को) क्या करना चाहिए । इसी बात को स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि यदि किसी नगर को जाते हुए मार्ग में नदी आदि जलाशय पड़ जावें तो साधु सूत्रोक्त विधि से उनको पार कर नगर में जा सकता है । किन्तु यदि एक मास में तीन बार उनको (जलाशयादि को) पार करे तो शबल दोष का भागी होता है । इससे यह तो स्पष्ट ही है कि एक मास में एक या दो बार विधि-पूर्वक जलावगाहन करने से शबल दोष नहीं होता । किन्तु तीसरी बार करने से अवश्य ही हो जाता है ।
“आचाराङ्ग सूत्र में जङ्घा प्रणाण और इस सूत्र की तथा “समवायाङ्ग सूत्र की व्याख्या में नाभि प्रमाण जलावगाहन का विधान (लेख) है ।
धर्म-प्रचार और जीव-रक्षा को लक्ष्य रखकर ही सूत्रकार ने उक्त कथन किया है ।
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