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दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम्
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टीका- - इस सूत्र में वचन - सम्पत् का वर्णन किया गया है। गणी के पास वचन - सम्पत् का होना परम आवश्यक है, क्योंकि वचन - सम्पति के होने पर ही धर्म-प्रचार में सफलता हो सकती है । उसके चार भेद हैं जैसे- सर्व प्रथम गणी को आदेय-वचन-रूप- गुण से युक्त होना चाहिए अर्थात् उसके वचन जनता के ग्रहण करने के योग्य हों । यदि जनता उसके वचनों को स्वीकार नहीं करती तो जान लेना चाहिए कि वह वचन-सम्पत् से वञ्चित है । अतः उसके मुख से सदा ऐसे वचन निकलने चाहिएं जिनको सब प्रमाण रूप से स्वीकार कर लें । दूसरे में गणी को मधुर वचन बोलने होना चाहिए, किन्तु मधुर शब्द का कोकिल के समान श्रुति-प्रिय किन्तु निरर्थक वचनों से तात्पर्य नहीं है अपितु श्रुति- प्रिय होते हुए शब्द सार - गर्भित (अर्थ - पूर्ण) होने चाहिएं, क्योंकि निरर्थक शब्दों से, भले ही वे मधुर क्यों न हों, कोई कार्य सिद्ध नहीं होता । अतः सूत्रकार ने वर्णन किया है कि अर्थपूर्ण, क्षीराश्रवादि - लब्धि - सम्पन्न, दोष-रहित और गुण-युक्त वचन ही मधुर वचन कहलाता है । ऊपर कहे हुए गुण-समुदाय युक्त होने पर भी क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत होकर उच्चारण किया हुआ वचन प्रशंसनीय नहीं होता । अतः सूत्रकार ने वर्णन किया है कि राग द्वेष आदि के निश्रित ( वशीभूत होकर कभी वचन नहीं कहना चाहिए इन सब को दूर करके ही वचन बोलना उचित है; क्योंकि राग-द्वेष रहित निष्पक्ष वचन ही सर्व मान्य होता 1
चतुर्थी दशा
किन्तु वचन वही बोलना चाहिए जो सन्देह रहित ओर वचन - गुणों से सुसंस्कृत हो - अर्थात् स्फुट हो, अक्षरों के उचित सन्निपात से युक्त हो, विभक्ति और वचन युक्त हो, परिपूर्ण और अभीष्ट अर्थ-प्रद हो। ऐसा वचन, बोला हुआ, स्वयमेव अपने गुणों को प्रकट कर देता है । इसी का नाम वचन - सम्पत् है ।
सम्पूर्ण कथन का सारांश यह निकला कि जो वचन आदेय, मधुर, निष्पक्ष, असंदिग्ध और स्फुट हो वही भव्यजनों के कल्याण करने में अपनी योग्यता रखता है ।
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वचन-सम्पदा के अनन्तर अॅब सूत्रकार नाचना - सम्पत् का वर्णन करते हैं:से किं तं वायणा - संपया ? वायणा संपया चउ-व्विहा पण्णत्ता, तं जहा - विजयं उद्दिसइ, विजयं वाएइ, परिनिव्वावियं वाएइ, अत्थ-निज्जावए यावि भवइ । से तं वायणा - संपया ।।५।।
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